शुक्रवार, 1 मार्च 2013


ज़िहादी मानसिकता से लड़ना होगा-आतंक से मुक्ति हेतु



भारत सरकार ने लोगों की जान का मजाक बना दिया है चन्द रुपए देकर हर सरकार अपनी ज़ुम्मेदारी से अलग हो जाती है कभी सोचा है की जिन की जान जाती है चाहे वो बलात्कार के करण या फिर आतंक बाद के करण उनके परिवार पर क्या असर पड़ता है शीसे के आफीसों में बैठ कर बहेश करबाते हैं मीडिया बाले मेन जो ज़ड़ है उस पर तो कोई बोलता ही नही है हर कोई आतंकबाद से लड़ने के लिए पाकिस्तान को दोष देता है
की इसमे पाकिस्तान का हाथ है सारी योजनायें पाकिस्तान मे बनी है  अरे भई कितना लम्बा हाथ उनका जो बार 2 हमारे घर तक पहुंच जाता है और हम उस हाथ को काट नही सकते हैं बार 2 पाकिस्तान को दोष देना कितना उचित है यह तो बही बात हुई की घर ना रखावै आपनो चोर को गारी दे जब हम मजबूत नही होंगे तो दुसमन तो हमला करेगा ही सरकार बोट बैंक के लिए अंधी है तो मीडिया पैसे के लिए अंधी है और जनता रोटी के लिए अंधी है जनता का अंधा होना ज़ायज़ है पर मीडिया का अंधा होना ज़ायज़ नही है ना ही सरकार का अंधा होना स्वीकार्य है .
हमे बहुत अच्छी तरह से याद रखना होगा की अगर हम बार 2 पाकिस्तान को दोषी मान कर अपनी जिम्मेदारी टालते रहेंगे तो हमारा हाल और भी जादा बुरा होगा और देश तबह हो सकता है अगर हम किसी को गलती के लिए सुधारने को कहते हैं तो हमे पहले अपने को सुधारना होगा अगर हम ऐसा नही करते है तो दूसरा सुधारने की जगह खुन्नश मे और भी जादा खूंखार और बिगड़ जायेगा और ऐसा ही हो रहा है
नोट : में अपने मुस्लिम भाईओं से अनुरोध कर रहा हून की मेरी बातो को बुरा ना माने एक बार शांत मन से सभी बातों पर गौर करें और बिचार करें ,में हर मजह्व का सम्मान करता हूँ पर जो बुराईन हैं उनेह छुपाने से मजहब की हानि होती है और एही इस्लाम के साथ भी हो रहा है में खुद भी कहता हून की धरम परिवर्तन किसी समसया का समाधान नही है पर हन अंतिम रास्ता ज़रूर होता है अपने आपको उस समस्या से अलगा करने का ,इसलिए मुस्लिम बन्धु खास कर इस पर विचार अवस्‍या करें

1- भारत मे हमले की योजनायें भले ही पाकिस्तान मे वन्ती है पर उनका पालन 90% तक भारत मे होता है
2-जो लोग इन योजनायों पर काम करते है उनकी मदत करने बाले 100% भारतीए होते है इसलिए भारतीए पाकिस्तानियों से ज़ादा दोषी है
3-जो लोग मदत करते है  वो मुस्लिम ही क्यू होते है ?( सभी नही जो भी होते है )
4-अगर मुस्लिम होते है तो वो क्यू होते है क्या बजह है की एक मुस्लिम पड लिख कर भी आतंक मे लिप्त बड़ी आसानी से हो जाता है?
5- जो लड़के आतंकी गतिविधिओं मे लिप्त होते हैं उनकी मानसिकता ऐसी होती है की वो ज़िहाद पर अपने जान से भी जादा भरोषा करते है (कुछ लोग कह सकते है की कुछ अत्याचारों के कारण वन्ते ,पर ऐसा नही है किओंकी पूरी दुनिया मे और भी कई कौमे और जातियाँ है जिन पर अम�������������������नविए ज़ुल्म होते है पर वो सभी इतने घटक आतंकी नही वन्ते है अगर वन्ते हैं तो अपना मकसद पूरा होने पर अपने बुरे अस्तित्व को मिटा देते हैं पर मुस्लिमो के साथ ऐसा क्यू नही होता है कंही उनका मकसद दारुल इस्लाम तो नही है जो शायद कभी संभव नही है और उसी के प्रयास मे लगातार आतंकबाद चल रहा है )
6-जिन लड़कों की मानसिकता ऐसी होती है तो वो क्यू होती है इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है समाज,मजहव,या फिर परिवार ,आखिर कौन है जो इन मासूम बच्चों की मानसिकता ऐसी कर देता है जो बे ज़िहाद के सामने और किसी को कुछ नही समझते हैं
7-मजह्व : वैसे  में इस्लाम के बारे बहुत कुछ जानता हून ज़मीनी भी और किताबी भी पर में उनका उल्लेख नही करूंगा पर इतना कह सकता हूँ की इस्लाम आतंक के लिए जिम्मेदार नही है अगर कोई मजहव आतंक के लिए ज़िम्मेदार होता तो उसके 100% लोग  आतंकी होते पर ऐसा नही है कुछ चन्द लोग ही आतंकबाद को सही मानते हैं ,पर इस्लाम के कुछ नियम ऐसे ज़रूर है जिनसे बच्चों की सोच निगेटिव हो जाती है 
8-मुस्लिम समाज(कठमुल्लाबाद) मुस्लिम समाज की जितने भी भाग है हर भाग मे कट्टरता कूट कर भरी हुई है और कुछ लोग अपनी दुकाने चलाने के लिए ठेके दार बन बैठे है और भोले भाले लोगों को अपने अनुसार जीने के लिए मजबूर करते है अगर कोई नही मानता है तो फतवे के दुआरा उसका जीवन नरक बना देते है कठमुल्लाबाद ही आतंकबाद की मुख्य ज़ॅड है जो मासूमों की सोच को निगेटिव और अपाहिज़ बना देते है उनके सकारात्मक विवेक को खतम कर देते हैं
9- परिवार : कोई भी परिवार या माता पिता अपने बच्चों को अपराध करते नही देखना चाहता है पर ज़िहाद को एक धार्मिक कर्तव्य बना कर कठमुल्ले पेश करते है और बच्चों के दिमाग को इतना ब्रेंन बाश किया जाता वो भी सका रात्मक तरीके ,अगर कोई परिवार अपने बच्चों को अपने तरह से पालना चाहें तो कोई भी कठमुल्ला फतवा के दुअरा उस परिवार का ही बहिष्कार कर देता है एह फतवा बड़े  शहरों के कुछ अमीरों पर तो वे असर होते है पर छोटे शहरों के अमीर से अमीर परिवार को भी अलग तलग कर देते है तो सामान्य गाव  के गरीव परिवारों की विसात ही क्या है अगर कोई लड़का या लड़की अपनी इच्छा से जीवन जीना चाहते है तो परिवार ही मजहव की दुहाई दे कर उसका बहिस्‍कार कर देते है फिर वो करे तो क्या करे इसलिए अच्छे लोग कुछ भी करने मे असमर्थ हैं अब रही बात परिवार की भूमिका की बच्चों की मानसिकता को निगेटिव बनाने मे तो परिवार ही सबसे जादा दोषी है
आ) जनम से लेकर जवानी तक बच्चे की देख रेख की ज़िम्मेदारी परिवार की ही होती है और वो करता भी है पर वो बही करता है जो कठमुल्ले चाहते है और करबाते हैं जबकि परिवार इसे मना भी कर सकते है
ब) कोई भी कठमुल्ला किसी परिवार पर हमेशा नज़र नही रख सकता है फिर भी यह लोग अपनी मर्जी से ऐसा करते है की बच्चों की सोच निगेटिव हो जाती है
10- वो कारण जिसकी बजह से बच्चों की सोच निगेटिव होती है
हम सबसे पहले बताते हैं की आदमी की सोच एक जगह पर जा कर अच्छा बुरा सोचने मे असमर्थ जाता है और बही ���र���ा है ज�� उ���क��� दिमाग मे बैठ जाता है
कारण : किसी भी चीज से अति प्रेम और अति नफरत
1-अति प्रेम जो की इंसान को अंधा कर देता है
  मुस्लिम अपने बच्चों मे इस्लाम के प्रति अति प्रेम भर देते हैं जो की उनकी सोच को घातक बना देते हैं
आ) जिस प्रकार एक प्रेमी किसी प्रेमिका को बिस्वास दिलाने हेतु की वो ही सबसे जादा उससे प्रेम करता है कभी 2 अपनी जान तक दे देता है ठीक वैसे ही बच्चों मे इतना अंध प्रेम पैदा किया  जाता है की वो इस्लाम के लिए कुर्बान होने को तत्पर रहते हैं और किसी दूसरे को किसी भी हद तक नुकसान पहुँचा सकता है इतना ही नही अगर किसी को ऐसा लगे की वो जिससे प्रेम करता है उसके प्रति ही उससे कुछ गलत हो गया है तो वो उसे विस्वास दिलाने के किसी भी हद तक अपने को नुकसान  कर सकता है  ठीक इसी प्रकार रसूल की सान मे कोई गुस्टाकी हो जाये तो लोग अपने आपको मारने से भी नही चूकते हैं
2-गैरो के प्रति अति नफरत इसके कई कारण है में येन्हा पर किसी भी किताव का उधारण नही दूंगा किओंकी फिर बात किताबों मे सिमट कर ही रह जाती है
आ) अपने को दूसरों से अलग समझना

1-बच्चों का खतना करना : ऐसा इसलिए होता है लिए पूरी जिंदगी बच्चा अपने को       सभी गैर मुस्लिमों से अलग समझे और ऐसा होता भी है 

ब) दूसरों को हीन(कम) समझना
इसके लिए कई झूंट बच्चों को बताये जाते हैं जैसे
1-क़ुरान आसमानी किताब है
2-इस्लाम सबसे अच्छा और पुराना मजहब है
3-सारे मजहब इस्लाम से निकले है
4-मोहमद सबसे आखरी और प्यारे नबी थे
5-गैर मुस्लिम काफ़िर हैं और भरोशे और प्रेम के पात्र नही हैं 
6-तकरीर के मध्यम से मुस्लिम और गैर मुस्लिम मे इतना अंतर
बताना की इंसानियत की हर हद ही पार कर दी जाती है 
7-एक मुस्लिम किसी गैर मुस्लिम से विवाह नही
कर सकता जब तक वो इस्लाम कबूल ना करले 
 8-काफ़िर का कत्ल ज़ायज़ है 

स) अपने को ही सर्वोपरि समझना

1-मात्र अरवी भाषा को ही धार्मिक भाषा समझना
2-दूसरों के संस्कारों का सम्मान नही करना
योगा का बहिस्‍कार,सूर्य नमस्कार,हाथ जोड़कर प्रार्थना,राष्ट्रधज़,बंदेमातरम का बहिष्कार)
 जब की  इन सबका धर्म से कोई भी सम्बंध नही होता है बड़ी आज़ीव बात है मुस्लिमों को छोड़कर ,हिन्दू,सिख,जैन,फ़ारसी,ईसाई कोई भी विरोध नही करता है मुस्लिम ही क्यू ऐसा करते है जब सब पालन करते हैं तो आपको पालन करने मे क्या तकलीफ है अगर इस परकार की हरकतें होंगी जिन से एह स्वॅम ही अपने को बाकी दुनिया से अलग करने की कोसिश करते हो तो फिर दूसरे आपमें अंतर किस आधार पर नही करेंगे ,आपकी ऐसी हरकटेई ही आपको दूसरों  से अलग समझने के लिए लोगों को मजबूर करती हैं 

द) अच्छाई और बुराई मे अंतर समझने के लिए इंसान की सोच को कुन्ध कर देना
1-कोई भी बच्चा अपने दिमाग का इस्तमाल ना कर सके इसके लिए हर चीज मे हलाल और हराम नियत कर दिए हैं वो भी इतने गलत कीकोई भी इंसान उचित नही कह सकता है
जैसे : जानवरों की हत्या मे ,कुछ जीवों की हत्या ज़ायज़(हलाल) है और कुछ की हत्या हराम है जबकि कोई भी इंसान किसी भी जीव की हत्या(अकारण) को सही नही कह सकता है अगर कहता है तो उसके अंदर 1% भी इंसानियत नही हो सकती है सभी गैर मुस्लिमों को इस्लाम का शत्रु और नुकसान दायक घोषित समझना
विशेष : हिन्दू धर्म मे हर रकचश को शत्र��� या निन्दा का पात्र नही है रावाण का अंत उसके बुरे कर्मों और अहेंकार के कारण हुआ ना की उसकी जाती के कारण और राम ने उनका राज नही छीना किसी भी रक्चस को उसकी जाती नही उसके बुरे कर्मो के करण मारा गया और उनके राज पाठ को नही छीना गया सिर्फ इंसानियत कायम की गई थी
बच्चों को भी रकचसों या किसी बिशेष जाती के प्रति नफरत पैदा नही की जाती है और बच्चों के दिमाग को संतुलित करने को कहा जाता है ही रकचास के घर देवता और देवता के घर रकचास पैदा हो सकता है कोई भी मनुष्य अपने कर्मो से रकचास या देवता वनता है और एह स��्या ���ी है
पर मुस्लिम समाज मे इसका उल्टा है गैर मुस्लिम (काफ़िर) किसी हालत मे संममानिए और इंसान नही है और वो भगबान के दुआरा दंड का पात्र है

उपाय ;
नोट ---- उपाय बताने से पहले एक बात पर हर हिन्दू मुस्लिम को गंभीरता से सोचना होगा
भारत एक बिसाल देश है और हर जगह ,हर समय,���र इंसान क�� सूर���छ��� ना तो सरकार कर सकती है ना ही पुलिस किओंकी आतंकबाद की जड एक सोच है जो की कभी भी जीवित होकर ज़िहादी का रूप धरण कर लेती है और परिणाम आतंकी हमले के रूप मे सामने आते हैं पुलिस और सरकार की तीव्र सक्रियता उन लोगों को तो रोक सकती है जिनके अंदर मौत का डर या सज़ा का ड़र हो पर कुछ लोग ऐसे भी है जो अपनी जान भी देने को तत्पर रहते है उनेह कैसे रोका जा सकता है अगर कोई बम सरीर से बाँध कर भीड़ मे कूद जाये तो क्या कोई कुछ कर पायेगा शायद नही ,इसी तरह कुछ तकनीकी ऐसी है जिनके मध्यम से कोई अपने घर पर बैठ कर दूसरी जगह बम प्लांट करके विशफोट कर सकता है इनेह रोकना बहुत ही मुस्किल है इन की जड है वो कुंठित सोच जिसका विवरण मैने उपर दिया है
में बताना चाहता हू की इस तरह की सोच सीधे 2 किसी को ज़ुर्म करने को जिम्मेदार नही होती पर बहुत जल्दी उकसावे मे आकर अपनी चरम पर पहुंच जाती है ज़िहादी बन ज़ाती है कुछ चीजें है जो उत्प्रेरक का काम करती हैं
ऋणात्मक उत्प्रेरक (जो सुधार की संभावना को कम करता हो)
1-फ़तवा : छोटे स्तर पर संभावित सुधारों को रोकने का कठोर नियम है
2-औरतों पर जुल्म : हर समाज मेपरिवारमे,और बच्चों को संस्कारी विवेक शील बनाने के लिए नारी जाती की सोच और आज़ादी बहुत महेत्व रखती है पर इस्लाम मे औरतों पर होने बाले अत्याचारों का वर्दन असंभव है साथ ही उनकी सोच तो सिर्फ बच्चे पैदा करने तक ही सीमित कर दी गई है जब औरत खुद ही आज़ाद नही है तो बच्चे की सोच को सॉफ और पाक कैसे बना सकती है
3- बुरखा : एह औरतों को ग़ुलाम रखने का सकारात्मक तरीका है जिसे धार्मिक रूप देकर औरतों के लिए बुरखे मे रहना अनिवार्य संस्कीरति कर दी गई है  
धनात्मक उत्प्रेरक ( निगेटिव सोच को तीव्र करता हो )
3-ज़िहाद : बड़े स्तर पर होने बाले परिवर्तन के खिलाफ पूरा हिंसक और अहिंसक आन्दोलन है पर साथ मे हर मुस्लिम के लिए अनिबार्य भी है
4-मदरसा पद्दती : ज़िहाद के लिए उत्प्रेरक का काम करते है
5-तकरीर : इंसान की सोच को कुन्ध और विवेक हीन के साथ ज़िहादी बनने के लिए उत्प्रेरक का काम करती है एक मौलबी जितने बाकय बोलता है हर बात मे हम मोमिन और वो काफ़िर जैसे शब्दों का प्रयोग आम बात है साथ मे तमोगुण का भरपूर प्रदर्शन किया जाता है जिसभाई ने तकरीर सुनी होगी उसे बहुत अच्छी तरह से पता होगा 
6-तुष्टिकरण : तुष्टिकरण सवसे तीव्र उत्प्रेरक है अपराध के लिए जिस समाज धर्म या जाती या वर्ग का तुष्टिकरण होता है वो अपराध करना अपना अधिकार समझता है प्राचीन काल ��े मनुब���दिओं ने दलितों पर ज़ुल्म किए किओंकी शासक वर्ग ने उनका तुष्टिकरण किया था आज वोट बैंक के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण अपनी चरम पर है जिसके कारण देश विरोधी तागतें प्रबल होती ही जा रही है तुष्टिकरण पर रोक लगनी चाहिए आज भले ही मुस्लिम भाईओं को बुरा लगेगा पर समय के साथ जब उनमे सकारात्मक परिवर्तन होंगे तो उने स्वता अहसास हो जायेगाजैसे आज मनुबादिओं को भी अहसास है.
Needful actions
 1-तुष्टिक���ण को ��तम कर���े का एक ही उपाय है जात,वर्ग,धरम को कानूनी रूप से बैन क�� दिया जाये ,किसी भी सरकारी गैर सरकारी काम मे इन चीजों का लिखना भी दनडनिए अपराध हो सब सिर्फ भारतीए हों और हर सुविधा सिर्फ गारीवी के आधार पर ही मिलनी चाहिए अगर जल्दी ऐसा नही होता है तो जांच टीम म�� कुछ मुस्लिम अफसर ज़रूर होने चाहिए ताकि मुस्लिमो को ऐसा ना लगे की इनके साथ जांच मे भेद हो रहा है और वो सरकारी करवाही पर पूर्ण विस्वास कर सकें
2-मीडिया को जाग कर निस्पक्छ रूप से देश और जनता को ध्यान मे रख कर काम करना चाहिए ,पैसे की चाहत मे इतने अन्धे सेक़ुलर बनकर एकतरफा बातें ना रखे ज़रा सोचो जिन बच्चों के लिए पैसे की खातिर अन्धे सरकारी भक्त बने हैं जब बच्चे ही सुरकचित ना हो तो उस पैसे का क्या फायदा होगा किओंकी नेता और उनके बच्चे तो पूर्ण सुरकचित हैं पर हमारे और आपके नही ,सरकार के भक्त बनने से अच्छा है देश भक्त बने
3-पोटा जैसा कानून बने और सरकारी तंत्र और सूरकछा तंत्र पूर्ण सतर्क हमेसा रहे तकनीकी को विकसित किया जाय
4-जनसंख्या पर तुरंत पूर्ण रूप से रोक लगे
5-हमारे देश के मुस्लिम बुद्धिजीविओं को इस ज़िहादी मानसिकता के खिलाफ खुलकर खड़ा होना होगा तभी सोच मे बदलाव संभव है अगर कोई गैर मुस्लिम सही विरोध भी करे तो उसे काफ़िर करार दे कर उसकी बात को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है और उल्टे उसे अपना शत्रु समझ लिया जाता है किओंकी यह लोग इस बात को नही जानते है अगर किसी का कोई सही हमदरद होता है तो वो आलोचक होता है किओंकी वो आलोचना तब करता है जब उसे किसी की बुरी चीज से दुख होता है और वो उसे दूर करना चाहता है याद रखे जो दुसमन होता है या वास्तव मे बुरा चाहने बाला होता है वो आलोचना नही करता बल्कि षड्यंत्र करता है आलोचना तो सुधार हेतु होती है इसलिए उसे स्वीकार करना अच्छा होता है

6-जो गैर मुस्लिम बर्ग है उसे मजबूरन आगे आना होगा किओंकी मुस्लिम वर्ग फतवे की मार से बहुत डरता है बड़े से बड़े स्माज सुधारक जो मुस्लिम है फतवे के सामने नही टिक पाते है इसलिए गैर मुस्लिमों को भी मुस्लिमों का साथ देना होगा और खुद भी आलोचना करनी होगी और जो मुस्लिम सुधारक है उनका संरकछन करना होगा बड़ी ही लानत की बात है भारत के लिए की एक लेखिका तस्लीमा नसरीन की रक्छा नही कर सका
7-मुस्लिम औरतों को हर कीमत पर आगे आना होगा :
किसी भी समाज की रीड औरत होती है अगर वो रीड ही कमजोर होगी तो वो समाज कभी सुधार नही सकता है औरतों को हर प्रकार की छूट और आज़ादी होनी चाहिए सरकार कुछ ऐसा करे की छोटे से भी अपराध पर ��ठोर सज़ा हो ,बुरखा और फतवे पर पूर्ण रूप से बैन लगे ,

8-नारी संघटन आगे आयें : भारत मे नारी संघटन बहुत ही कमजोर है और महिला आयोग तो जैसे है ही नही ऐसा लगता है इन सब को सोचना होगा की सिर्फ हिन्दू औरतों के आज़ाद होने से भारत सुसंस्कृत नही हो जायेगा जब तक मुस्लिम औरतें ग़ुलामो की तरह जीती रहेंगी तब तक कुछ भी ठीक नही होने बाला है और ना ही संतुलित होने बाला है इसलिए नारी संघटानो का सक्रिय होना बहुत ज़रूरी है एक देश मे नारीओं के लिए अलग 2 कानून क्यू , हर कानून को समान बनाना होगा और उनका पालन भी समान रू�� से करना होगा

नोट : सभी पाठकों से अनुरोध है की धार्मिक किताबों से रिफरेंस देने से बचें और मनोविग्यान के आधार पर सिर्फ अपनी सोच से कुछ सुझाव देने की किरपा ज़रूर करें की किस प्रकार इस ज़िहादी मानसिकता से लड़ा जा सकता है और अपने मुस्लिम भाईओं को इस आग से बचाया जा सके किओंकी जब तक ज़िहादी मानसिकता जिंदा है कोई भी योजना आतंकबाद को खतम नही कर सकती है 


गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013


हिन्दुत्व का कलंक मनुस्मृति- जातिमुक्त भारत हेतु- 1



मेरा उद्देश्य 

1- हर हिन्दू अपने नाम के आगे से जातिसूचक शव्द हटाकर गुण बाचक शब्द लगाये !
2-कोई किसी की जात ना पूछे ना बताये !
3-जातीबाद को खतम करवाने हेतु सरकार पर कानून बदलकर जातीबाद पर पूर्ण बैन लगाने हेतु दवाव बनाने हेतु हिन्दू एकता के लिए समाज को जागरूक करना 
4-जातीबाद-गॉत्रबाद महा पाखंड और अंधविस्वास इनपर तुरंत रोक हेतु सरकार पर दबाब बने 
5-जो संगठन जातीबाद और गोत्र जैसे पाखंड के नाम पर बच्चो का कतल करबाते हैं उनेह तुरंत आतंकी संघटन घोषित करके उसमे काम करने बालों को को जेल मे डाला जाये ताकि एह अमानवीय आतंक समाप्त हो सके.
6-आज तक सिर्फ प्रेमी ही इसका विरोध करते रहे हैं पर अब समय आ गया है जब पूरा समाज मिलकर इस कलंक के खिलाफ खड़ा हो .
7-आर्य समाज,संघ,अन्य ध्रमिक संघटन और अग्नि वीर जैसी साइटें भी इस गोत्र और जातीबाद का घोर विरोध करें और समाज को जागरूक करें ना की वर्ण वियावस्था का समर्थन .
8-में किसी जाती या वर्ग का विरोध नही कर रहा हूँ में पूरे सिस्टम का विरोध कर रहा हूँ 
9-हिन्दू,हिन्दुस्तान की एकता और अखंडता के लिए परम अबस्यक है 
10-नारी जाती को पूर्ण स्व्न्त्र्ता हो कुछ भी करने को,अपने फैसले लेने के लिए .

नोट:- कोई कितना भी प्रताडित करे पर में ना तो हिन्दू ध्रम का त्याग करूंगा ना ही लिखना छोडूंगा ,आप  मुझे फेसबूक और ट्विटर पर भी फॉलो कर सकेंगे ,इसी नाम से .
जो लोग मनुबाद का समर्थन करते है वो ज़रूर पड़ें फिर बतायें की किस आधार पर एह ठीक है.
    अश्रेयान् श्रेयसीं जातिं गच्छत्यासप्तमात् युगात्॥10/64॥
    अनार्यायां समुत्पन्नो ब्राह्मणात्तु यदृच्छया।
    ब्राह्मण्यां अप्यार्यात्तु श्रेयस्त्वं केतिचेत् भवेत्॥10/66॥
    जातो नार्यां अनार्यायां आर्यात् आयों भवेत् गुणेः।
    जातो ऽप्यनांर्यात् आर्यायां अनार्य इति निश्चयः॥10/6॥
    यदतोऽन्यत् हि कुरुते तद् भवत्यस्य निष्फलम्॥10/123॥
    जात ब्राह्मण शब्दस्य सा ह्यहस्य कृतकृत्यता॥10/122॥
    पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदाः॥10/125॥
    नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति-न धर्मात् प्रतिषेधनम्॥10/126॥
    जिह्वाया प्राप्नुयात् छेदं जघन्य प्रभवोहिसः॥8/270॥
    निक्षेप्यो ऽयोमयः शंकुः ज्वलन्नास्ये दशांगुलः॥8/271॥
    तप्त मासेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रेच पार्थिवः॥8/272॥
    वितथेन ब्रुबन् दर्पात् दाप्यः स्यात् द्विशतं दमम्॥8/273॥
    छेत्तव्यं तत्तदेवास्य तन्मनो रनुशासनम्॥8/279॥
    कट्या कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वास्यावकर्त्तयेत्॥8/281॥
    चतुर्णामपि वर्णानां दारा रचयतमा सदा॥8/359॥
    तस्मात् मेध्यतम् त्वस्य मुखमुत्ता स्वयम्भुवा॥1/92॥
    सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः॥1/93॥
    कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं ततः॥1/95॥
    श्रेष्ठयेनाभिजने नेदं सर्वं वै ब्राह्मणोर्हति॥1/100॥
    आनृशंस्यात् ब्राह्मणस्य भुंजते हीतरे जनाः॥1/101॥
    शिष्येभ्यश्च प्रवक्तव्यं सम्यङ् नान्येन केनचित्॥1/103॥
    प्रब्रू यादू ब्राह्मणात्वेषां नेतराविति निश्चयः॥10/1॥
    शूद्रस्तु यस्मिन् फस्मिन् वा निवसेत् वृत्तिकर्शितः॥2/24॥
    पैप्पलो दुम्बरौ वैश्यो ��������ान् अर्हन्ति धर्मतः॥2/45॥
    नाब्राह्मणो गुरौ शिष्यो वासमात्यन्तिकं वसेत्॥2/242॥
    करवट नहीं बदलते हैं इस इजतराब में।

एक बड़े मार्के की बात मनुस्मृति में दर्ज है। ब्राह्मण यदि शूद्र की भी कन्या से विवाह कर ले तो हर्ज नहीं, लेकिन यदि क्षत्रिय ब्राह्मण की कन्या से विवाह कर ले तो ‘वर्णसंकर’ हो जाएगा! इसी प्रणाली से हजारों ही उप-जातियाँ हो गईं। कोई तो पेशे के कारण नीच समझी जाने लगी और कोई वर्ण संकरता से बचने के लिए पृथक् नाम से पुकारी जाने लगी। जैसे कायस्थ, खत्री, अरोड़े इत्यादि। मनुस्मृति का अनुलोम और प्रतिलोम विवाह भी तो ‘द्विजों का षड्यन्त्र’ है। शूद्रों के कुचलने के लिए ब्राह्मणों ने क्षत्रिय और वैश्यों को साथ लेकर मनुस्मृति में मनमाने कानून बना डाले। अस्तु-अब हम नमूने के लिए मनुस्मृति के कुछ श्लोक लिख कर उन का भावार्थ किए देते हैं।
शूद्रायां ब्राह्मणात् जातः श्रेयसा चेत् प्रजायते।
यदि शूद्रा में ब्राह्मण से सन्तान हो तो वह उच्च जाति की बन जाती है।
यदि ब्राह्मण का मन शूद्रा पर चल जाए तो भी सन्तान उच्च होगी।
शूद्र स्त्री में द्विजों से सन्तान हो तो वे आर्य हैं। परन्तु शूद्र यदि द्विज स्त्री से सन्तान पैदा करे तो वह अनार्य ही रहेगी।
देखिए शूद्रों को आर्यों की पंक्ति से कैसे बाहर कर दिया है। तब न जाने शूद्र लोग ‘आर्यसमाज’ में क्यों घुसते हैं और फिर आर्यसमाज में जब चारों
वर्ण ही नहीं रहे तो वर्ण व्यवस्था की दुर्गति होनी तो स्वाभाविक ही थी।
विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते।
यदि कुछ वेतन लेने की इच्छा हो तो क्षत्रिय या वैश्य की सेवा करके जीवन बिताले।
स्वगार्थं उभयार्थं वा विप्रान् आराधयेत्तु सः। 
यदि स्वर्ग जाने की इच्छा हो तब तो बिना कुछ लिए ही ब्राह्मण की सेवा करे। यदि ‘ब्राह्मण के बन गए’ तो सारा जीवन ही सफल समझो।
उच्छिष्ट मन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च।
शूद्र को झूठा अन्न, फटे कपड़े और बिछौने देना चाहिए; क्योंकि शूद्र को कोई पाप नहीं होता है। देखिए-अगला श्लोक तय्यार है।
न शूद्रे पातकं किंचित् न सः संस्कारमर्हति।
शूद्र के लिए कोई संस्कार नहीं है और उनको धर्म में कोई अधिकार नहीं है। हाँ! स्वधर्म अर्थात् सेवा करने का सर्वाधिकार प्राप्त है। क्या खूब!!!
एक जातिः द्विजातींस्तु वाचा दारुणयाक्षिपन्।
यदि शूद्र द्विजों को गाली देवे तो उसकी जीभ काट ली जाए, क्योंकि वह पैदायशी नीच है।
नामजातिग्रहं त्वेषां अभिद्रोहेण कुर्वतः।
यदि द्विजों का नाम लेकर शूद्र यह कह बैठे कि ‘ब्राह्मण’ बना है �����ो उसके मुख में दस अंगुल की लोहे की शलाका जलती-जलती घुसेड़ देवे।
धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणा मस्य कुर्वतः।
यदि शूद्र ब्राह्मण को कोई धर्म की बात कह दे तो उसके मुख और कान में राजा खौलता हुवा गरम तेल डलवा दे। परमात्मा बचावे! हिन्दुओं के रामराज्य और स्वराज्य से। नहीं तो ये लोग अपनी मनुस्मृति के आधार पर सब कुछ करेंगे। इन्होंने क्या नहीं किया। सबसे बढ़िया कहे जाने वाले रामराज्य में शम्बूक नामक शूद्र का सिर सिर्फ़ इसलिए स्वयं आदर्श राजा राम ने काट दिया कि वह तप करता था, मुनि बनता था, देखिए-तब भी वे लोग वेद नहीं मानते थे। मनुस्मृति मानते थे। वेद में तो शूद्र के लिए लिखा है-तप से शूद्रम्, अर्थात् शूद्र की तपस्या करने का पूर्ण अधिकार है। यह है मनुस्मृति का अन्याय!!
श्रुतं देशं च जातिं च कर्म शरीर मेव च।
यदि कोई अपनी जात छिपावे (जैसा कि आजकल छोटी जाति वालों को मजबूरी करना पड़ता है) तो उससे दो सौ पण जुर्माना लिया जावे।
येन केन चित् अंगेन हिंस्यात् श्रेष्ठमन्त्यजः।
अन्त्यज (शूद्र और अछूत) जिस किसी अंग से द्विजों को मारे उसका वहीं अंग काट लिया जावे।
सहासनममि प्रेप्सुः उत्कृष्टस्यावकृष्टजः।
यदि अछूत द्विज के बराबर दूरी आदि पर बैठ जावे तो उसके चूतड़ पर गरम लोहे से दाग दे अथवा थोड़े चूतड़ ही कटवा दे।
अब्राह्मणः संग्रहणे प्राणान्तं दंडमर्हति।
यदि शूद्र किसी की स्त्री को भगा ले तो उसको फाँसी का दंड दिया जावे; क्योंकि चारों वर्णों की स्त्रियों की रक्षा कोशिश के साथ करनी चाहिए परन्तु ब्राह्मण यदि किसी की स्त्री को भगाले तो जुर्माना तक न करे। देखिए एक श्लोक में लिखा है-‘कन्यां भजन्तीं उत्कृष्टां न किंचिदपि दापयेत्’॥8/365॥
ऊर्ध्वं नाभे र्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः।
नाभि से ऊपर शरीर पवित्र है, उसमें भी मुख अत्यन्त पवित्र है। इसलिए पाँव (शूद्र) तो अपवित्र ही रहेंगे।
उत्तमांगोद्भवात् ज्यैष्ठयात् ब्रह्मणश्चैव धारणात्।
मुख से पैदा होने के कारण ब्राह्मण सबसे बड़े हैं और सृष्टि के मालिक हैं।
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः।
देवता लोग ब्राह्मणों के मुख द्वारा ही भोजन करते हैं इस लिए संसार में ब्राह्मण से बढ़कर कोई प्राणी नहीं है।
सर्वस्वं ब्राह्मणस्येदं यत् किंचित् जगती गतम्।
संसार में जो कुछ है सब ब्राह्मण का है, क्योंकि जन्म से ही वह सबसे श्रेष्ठ है।
स्वमेव ब्राह्मणो भुंक्तो स्वं वस्ते स्वं ददाति च।
ब्राह्मण जो कुछ भी खाता है, पहिनता और देता है सब अपना ही है। संसार के सब लोग ब्राह्मण की कृपा से ही खाते-पीते और लेते देते हैं।
बिदुषा ब्राह्मणोनेदं अध्येतव्यं प्रयत्नतः।
विद्वान् ब्राह्मण को चाहिए कि इस मनुस्मृति शास्त्र को खूब प्रयत्न से पढ़े और ब्राह्मण को ही पढ़ावे। दूसरे कदापि न पढ़ने पावें; क्योंकि श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द की कृपा से जैसे हम अब पढ़ गये हैं सो सब पोल खोलकर धरे देते हैं।
अधीयीरन् त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः।
द्विजाति लोग विद्या पढ़ें। परन्तु पढ़ाने का काम ब्राह्मण ही करें। शूद्र पढ़ने न पावें। कैसा षड्यन्त्र है-
एतान् द्विजातयो देशान् संश्रयेरन् प्रयत्नतः।
इन ब्रह्मर्षि, आर्यावर्त्त आदि देशों पर द्विजाति लोग कोशिश करके अपना कब्जा करलें और शूद्र तो मुसीबत का मारा किसी कोने में पड़ा रहे। यह श्लोक गुरुकल-काँगड़ी से प्रकाशित और स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा संशोधित मनुस्मृति में भी पाया जाता है। कोई करे भी क्या, दो एक श्लोक हों तो निकाल दे। यहाँ तो सारी मनुस्मृति में ही जन्म का जादू जोर मार रहा है। इसलिए मनुस्मृति को तो जल मग्न ही कर देना पड़ेगा।
ब्राह्मणो बैल्व पालशौ क्षत्रियो बाट खादिरौ।
द्विजाति लोग दण्ड धारण करें। शूद्र के लिए कोई आज्ञा नहीं। यह संस्कार विधि में भी है।
अब्रोह्मणादध्ययनं आपत्काले विधीयते।
क्षत्रिय आदि पढ़ाने की योग्यता भी रखते हों तो भी इनको पढ़ाने का काम न दे। इसके अनुसार आजकल स्कूलों में जितने गुप्ता मास्टर या हेडमास्टर हैं, सब के सब बायकाट के योग्य हैं।
यह है संक्षेप से द्विजों का षड्यन्त्र। वास्तव में वाममार्गियों ने मनुस्मृति में प्रक्षेप अवश्य किया है-सो मांसादि का विषय है। इस वर्ण व्यवस्था के मामले में तो मनुस्मृति का स्वमत यही है। यह प्रक्षेप में नहीं है। अब हम यहाँ यह भी बता देना चाहते हैं। यदि आप मनुस्मृति के सुन्दर श्लोकों का संग्रह पढ़ना चाहते हैं तो 1) में पं. चन्द्रमणि विद्यालंकार कृत ‘आर्ष-मनुस्मृति’, भास्कर प्रेस, देहरादून से मँगा लीजिए। सुयोग्य पण्डित जी ने पाखण्ड से परिपूर्ण 9वाँ तथा 11वाँ अध्याय बिलकुल उड़ा दिया है। यह अति उत्तम किया है, और अपने बच्चों के हाथ में हमारी बनाई ‘आर्यकुमार-स्मृति’ अवश्य दीजिए जिसमें अर्थ सहित मनुस्मृति के जीवनोपयोगी 100 श्लोक संगृहीत हैं। मूल्य भी सिर्फ़ चार आना है। अधिक क्या लिखें। आर्य समाजी लोग यदि मनुस्मृति का मोह छोड़ कर वेदों पर ही अपने धर्म को स्थिर करलें-तभी आर्यसमाज सौर्वभौम-धर्म का प्रचारक बन सकेगा। क्या वेदों में कुछ कमी है जो मनुस्मृति के पीछे पड़े हैं। देखिए-आर्यसमाज यदि वर्ण व्यवस्था का ढोंग न छोड़ेगा तो मर जाएगा और अकाल में मर जाएगा। ये लोग तो-
सोए हैं शर्त बाँध के मुर्दों से ख़्वाब में।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013


हिन्दुओं कब तक लड 2 कर मरोगे ?



हमारे देश के और विदेश के कई लोग हम भारतीएओं को कई भागों मे बांटे  हैं सुर असुर,आर्या-अनार्य,सूरन-बेलन,देवता-दैत्य परंतु खुशी की बात एह है की इसका कोई भी ठोस प्रमाण नही है कुछ लोग आर्यों को देशी तो कोई विदेशी मानते हैं पर ठोस प्रमाण इसके भी नही है 

अब में अपना पक्छ रखता हूँ-

1---आर्या बाहर से आये या भीतर से इससे हमे कोई मतलब नही है में तो हिन्दू धरम के इतिहास के आधार पर कह रहा हूँ की एह सब देश को तोड़ने के लिए किया गया है  जिसके इतने घातक परिणाम हुए है की हमारा देश लगातार टूट 2 कर अलग होता जा रहा है और देश खतम होता जा रहा है 

 पहली बात एह है की देवता,मनुस्य,दैत्य तीनो ही एक ही माता पिता की सन्तान है जैसा की हर घर मे होता है की एक घर के दो बच्चे अलग 2 गुण कर्म के हो सकते हैं ऐसे ही देवता उनेह कहा गया जो अच्छे गुण रखते थे और जिनके गुण .... करने के थे वो दैत्य कहलाये चूंकि वो रक्छा करते थे इसी लिए उनेह रकचास भी कहा जाने लगा ,और जो सामान्य लोग थे जी काम धाम करते थे उनेह मानव मात्र कहा गया है और इनकी देख भाल के लिए 3 मुख्य विवाग बनाये गये थे जिनकी देख रेख स्वम् त्रदेव किया करते थे निर्माण कर्ता (व्रम्हा),पालन कर्ता (विसणु),संघार"न्याय"कर्ता शिव.

 वास्तव मे जिनेह हम विशेस देवता कहते हैं वो मात्र पद्द थे देवता समाज सेवा कर्ता थे इसीलिए उनेह कुछ अतिरिक्त सक्तियाँ प्राप्त थी और दैत्यों को राज करने और जनता की रक्छा करने कार्या प्राप्त था बाकी के लोग सामान्य काम करते थे 

परंतु एह प्रथा जन्म जात नही थी देवता के घर रकचास और रकचास के घर देवता पैदा होता था. 

जो लोग कहते हैं की हम सब एक माता पिता की सन्तान नही हो सकते हैं किओंकी हमारे अंदर 4 प्रकार का रक्त पाया जाता है तो इतना जान लीजिये की एक ही माता -पिता की 10 सन्तान हों तो ज़रूरी नही है की सबका रक्त गुरुप एक समान हो सबका रक्त समूह अलग 2 हो सकते हैं एह भी हो सकता है की 4 संतानो मे अलग 2 ,4 प्रकार का रक्त समूह हो , इसलिए रक्त समूह के आधार पर मानव को नही बाँटा जा सकता हूँ.

Prmaan 
आ) देवता सिर्फ सेवाकर्मी थे इसी लिए उनेह मात्र एक राज्य देवलोग ही प्राप्त था और काम के हिसाव से उसे कही भागों मे बाँटा गया था 

ब) जादातर राज करने बाले राजा रकचश ही थे  जो महत्वकांची होते थे अब चूंकि एह राजा होते थे तो इनमे कुछ बुरी आदतें भी होती थी जिनेः लेकर आपस मे उद्ध होते रहते थे जो बाद ने बहुत बड गये और एह देवता ,दैत्य,मानव (गुण -कर्म बाचक) का सिधान्त  बिफल और खतम हो गया 

स) अगर रकचास आर्य नही होते तो उनेह ब्रह्मा  इतने वरदान नही देते 

द) आर्यों के गोरे या काले होने का कोई मतलव ही नही होता है किओंकी जंहा तक रंग का सबाल है वो सिर्फ उस छेत्र के गरम और ठंडे वातावर्ण पर निर्भर करता है अगर कोई काला भी हो और उसे सही वातावर्ण और रहेंसहें मिल जाये तो उसकी तीसरी पीडी स्वता ग़ोरी हो जाती है 

ज) विष्णु भी काले थे और शिव भी इसी प्रकार क्रशन भी काले थे पर वो तो आर्या थे 

वेदो मे वर्ण वियवसता नही थी इसका कारण एह था की वेद ईस्वर् की वाणी है ईश्वर् बहु����������� अच्छी तरह से जानते हैं की मनुस्य एक बहुत ही तेज दिमाग का खूंखार प्राणी है और उसे किसी भी आधार पर बाँटना उचित नही है अगर उसे बाँटा जाता है तो उसे दूसरों को नीच घोषित करके उन पर अत्याचार करने का सहस्त्र मिल जायेगा ,और वो विना भेद-भाव के नही रह पायेगा, इसलिए इंसानो को वर्गीकर्त करने का कोई भी प्रमाण वेदों मे नही है, जो पुरुष सूक्त वेदों मे मिलता है वो वेद का भाग है ही नही उसे कपटी पंडितों ने बाद मे डाला है इसका प्रूफ हम नीचे दे रहे हैं.

नोट: इस समय तक विवाह कंही भी हो जाते थे और भारत सेक्स मुक्त था प्रमाण एह है 

विवाह के कुछ मुख्य उधारण

 1-यह बात अनुकरणीय है की  वेदव्यास जिन्होंने महाभारत और बहोत सारे ग्रंथो की रचना की उनकी माँ शुद्र वर्ण में थी न की ब्राह्मण.  और  पुरातन या वैदिक भारतीय समाज में विवाह जाती देख कर कभी नहीं होते थे, ये जो आज आप आज देख रहे है ये हमारे समाज की विक्रति है न की जो हमारे वास्तविकता. मह्रिषी वाल्मीकि जिन्होंने रामायण जैसे महाकव्य की रचना की उनका जन्म सूद्र वर्ण वाले पिता के यहाँ हुआ था, परन्तु  वो तो ब्राह्मण कहलाते है.  भारतीय समाज में वर्णों के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव कभी नहीं था, जो आज आपको दिख रहा है. आपकी जानकरी के कहुगा की भगवन श्रीराम की माता सुमित्रा के पिता ब्रह्मण वर्ण के और माता सूद्र वर्ण की थी. जिस भरत के नाम पर हमारे देश का नाम भारत है उनके पिता दुष्यंत क्षत्रिया थे और माता मेनका रूपी अप्सरा की पुत्री शकुन्तला थी. भगवन श्री क्रष्ण की माता असुर वंस की थी जबकि पिता वासुदेव क्षत्रिया थे.ये सब बाते यह चरितार्थ करती है 

2-नियोग : स्त्री और पुरुष दोनो ही अपनी अब्सयकता के अनुसार कई 2 विबाह और कई संताने पैदा कर सकते थे और सबसे बड़ी बात एह थी इस नियम मे दोनो को बराबर के अधिकार और कर्तव्य होते थे  जैसा की एक सेक्स मुक्त देश मे आज भी ज़रूरत होती है  


आ) वेदों से  

 बेदों का प्रसिद्ध ÷पुरुष सूक्त' जातिवाद की जड़ माना जाता है। यह सूक्त चारों वेदों में पाया जाता है। यजुर्वेद में 22, ऋग्वेद में 16, सामवेद में 7 और अथर्ववेद में 16 मंत्रा थोड़े उलटफेर के साथ हैं।

विद्वानों का मत है कि पुरुष सूक्त बाद वेदों में जोड़ा गया , इसे महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ÷जाली' मंत्रा की संज्ञा दी है। 

मंत्रा यह हैᄉ

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहुः राजन्यः कृतः।

उरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायत्‌॥

अर्थात्‌ उस पुरुष के मुख से ब्राह्मण, बाहों से क्षत्रिाय, उरु या जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र पैदा हुए।

मंत्रा में ÷अजायत्‌' क्रिया है, जिसका अर्थ ÷पैदा होना' होता है। आजकल कुछ लोग इस अर्थ में गड़बड़ी करने लगे हैं। पर उन्हें ध्यान नहीं रहता कि इसके आगे ही बारहवें मंत्रा में कहा गया है कि उस पुरुष के मन से चंद्रमा, आंखों से सूर्य, कानों से वायु तथा प्राण और मुंह से अग्नि उत्पन्न हुई।

वास्तव मे एह पुरुष सूक्त एक कपटी मंत्र है जो समाज की एकता को तोड़ने हेतु बाद मे जोड़ा गया है इसका वेदों से कोई भी लेना देना नही है

कारण 1- वेद निराकार ईश्वर् के पोषक हैं जो कंही भी ईश्वर् की   रंचना को नही दिखते है मात्र एक मंत्र ही ईश्वर् की सरंचना को दिखाता है जो की गलत है सारे मन्त्रों के ���ामने एक को सही नही टहराया जा सकता है इसलिए पुरुष सूक्त ना तो वेद बाणी है ना ही ईश्वर् वाणी है एह समाज मे ज़्हर घोलने का घिनौना कृत्य है इसे कभी स्वीकार नही किया जा सकता है

कारण 2- स्वामी दयानंद जी ने कहा है की इस पुरुष सूक्त की व्‍याकर्ण बाकी के सभी मन्त्रों की व्याकरण से बहुत ही अलग और आधूनिक है इससे सॉफ होता है की किसी ने वेदो और समाज को डूसित् करने के लिए इस पाखंड मंत्र का निर्माण किया था जो किसी भी हालत मे स्वीकार नही है

 गीता से
ब्राम्हण क्षत्रिय विन्षा शुद्राणच  परतपः। 
 कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभाव प्र        वे गुणिः ॥

 गीता॥१८-१४१॥

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।

तस्य कर्तारमपि मां    िद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ 

गीता॥४-१३॥

अर्तार्थ ब्राह्मण, क्षत्रिया , शुद्र  वैश्य का विभाजन व्यक्ति के कर्म और गुणों के हिसाब से        ोता है, न की जन्म के. गीता में भगवन श्री कृष्ण ने और अधिक स्पस्ट करते हुए लिखा है की  की वर्णों की व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर होती है.

श्री मद्भाग्वात्गीता में जाति व्यवस्था के बारे में समुचित ढंग से अध्याय १८ में लिखा गया है परन्तु कई जगहों पर उसकी भूमिका हम बनते देख सकते है। स   ्वप्रथम हम बात करते है अध्याय ४ श्लोक संख्या १३ की जिसका हिंदी अर्थ निम्नवत है
चार वर्णों की मेरी यह श्रृष्टि व्यक्ति के स्वाभाविक गुण और कर्मो के आधार पर बाटी गयी है परन्तु हे अर्जुन मै इनका रचनाकार होते हुए भी इनसे मुक्त हु”
 साफ़ लिखा है की यह बटवारा गुण और कर्मो के आधार पर होगा परन्तु इसमें श्री कृष्ण बड़े ही सावधानी से व्यक्ति के स्वाभाविक गुण की बात कार देते है । दरअसल गुण कर्म और स्वाभाविक गुण और कर्म में एक अंतर है गुण और कर्म तो मेहनत करके और मन मार के सीखे जा सकते है परन्तु स्वाभाविक गुण कर्म वो होता है जिसमे अपने आप व्यक्ति का मन लगा रहता है जैसा की आज कल की भाषा में कहे तो अपने होबी को अपना प्रोफेसन बनाना और हम जानते है की जो लोग अपने होबी को अपना प्रोफेसन बनाते है वो उस काम को बिना बोझ महसूस किये बेहद अच्छे से कर पाते है ।
अब किसके काम को छोटा कहे किसको बड़ा इसका उत्तर श्री कृष्ण अगले ही अध्याय में दे देते है। अध्याय ५ श्लोक संख्या १८ का हम हिंदी अर्थ देखते है
”पूर्ण रूप से ज्ञानी व्यक्ति विद्या विनय युक्त,, गाय.कुत्ता, हाथी और यहाँ तक की अन्य छोटे जीवो में कोई अंतर नहीं देखता”
इस श्लोक से स्पष्ट है की कोई भी समझदार व्यक्ति जानवर जैसे की कुत्ता हाथी इत्यादि तक को एक सज्जन व्यक्ति के बराबर ही सम्मान देता है तो फिर मनुष्यों की बात ही क्या है। यदि मनुष्य के विभिन्न वर्णों के बिच उच्च नीच का भाव आ रहा है तो यह पूर्ण रूप से मुर्खता की निसानी है क्योकि बुद्धिमान व्यक्ति सबमे परमपिता की ही छाया पता है अतः वह किसी तरह का उच्च नीच नहीं कर सकता।
अब हम चर्चा करते है अध्याय १८ की जिसमे समस्त जाति व्यवस्था को अच्छे तरीके से समझाया गया है.. सबसे पहले श्लोक संख्या ४१ देखते है
”हे अर्जुन ब्राह्मन छत्रिय वैश्य और सूद्र इन चारो के अपने स्वाभाव से उत्पन्न गुणों के आधार अलग अलग कार्यो के लिए विभाजित किया गया है ”
ध्यान देने वाली बात ���ै की य��ाँ पर भी स्वाभाव से उत्पन्न गुण की बात की जा रही है न की जबरदस्ती सिखाने की बात हो रही है।
अब हम श्लोक संख्या ४२ द��खते है जिसमे ब्राह्मन के कार्य विस्तार से बताये गए है
आत्म नियंत्रण तप शुद्दता दया आर्जव समानता ज्ञान विज्ञान ये सब के सब ब्राह्मन के स्वाभाविक गुण है ”
इसमे कही नहीं लिखा गया है की पूजा पाठ दुनिया भर का ढोंग करना ब्राह्मन का कार्य है बल्कि ये लिखा गया है की व्यक्ति में पाए जाने वाले उच्चतम गुणों के "समुच्चय को हम ब्राह्मन" कह सकते है।
श्लोक ४३ देखते है जिसमे छत्रिय के स्वाभाविक गुणों को बताया गया है
” शौर्य तेज़ चालाकी दृढ़ता दान और युद्ध में न भागना ये सब "छत्रिय के स्वाभाविक कर्म" है”
ऐसे गुण जो की एक राजा और उसके सैनिक में हो       चाहिए उसको यहाँ पर बताया गया है ।
श्लोक संख्या ४४ देखते है
”कृषि गौपालन वाणिज्य यह वैश्य का स्वाभाविक क  ्म है और सभी की सेवा करना सूद्र का स्वाभाविक कर्त्तव्य है ”
अब प्रश्न यह खड़ा हो सकता है की की सभी लोगो के कर्म एक बराबर है या ब्राह्मन के कर्म श्रेष्ठ ?
क्या सभी व्यक्ति अपने अपने कर्म को करते हुए सामान प्रतिफल पा सकते है ?? इसका उत्तर श्री कृष्ण अगले ही श्लोक में देते है । जिसका हिंदी निम्नवत है..
”अपने अपने योग्यता से स्वाभाविक कर्त्तव्य में लगा हुआ व्यक्ति परमसिद्धि को प्राप्त होता है ”
इस श्लोक में यह स्पष्ट है की चाहे    िसी भी वर्ण का व्यक्ति क्यों न हो यदि वह अपना कार्य सही और इमानदार तरीके से करे तो वो भगवत प्राप्ति का सामान अधिकार रखते है अतः किसी को भी अपना कार्य छोटा न समझते हुए अपने कार्य को मन लगाकर करना चाहिए।
अब हम श्लोक संख्या ४७ पर आते है जिसके अनुसार कहा गया है की ”अच्छी तरह अनुष्ठान किये हुए दुसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म परमकल्याण कारक है , स्वाभाव से निर्धारित किया हुआ कर्म करता हुआ मनुष्य अवागंमन से मुक्त हो जाता है”
अब हम श्लोक संख्या ४८ देखते है
”हे अर्जुन स्वाभाव से उत्पन्न अपने कर्म को दोषयुक्त होने पर भी नहीं त्यागना चाहिए क्योकि जिस तरह से अग्नि यानि तेज़ को धुएं यानि कालिख से अलग नहीं कर सकते उसी तरह किसी भी कर्म को दोष से अलग नहीं कर सकते”
इस श्लोक के अनुसार व्यक्ति चाहे जिस वर्ण का क्यों न हो अर्थात उसका स्वाभाव चाहे जैसे सद्कार्यो में क्यों न लगता हो उसे उस कार्य का दोष देखकर नहीं भागना चाहिए क्योकि उस कार्य को वह त्याग कर चाहे जिस कार्य को अपना ले दोष तो हर कार्य में ही होता है ऐसा नहीं है की सूद्र का कार्य ही केवल दोषयुक्त होता है और ब्रह्मण का नहीं।
अतः हम देख रहे है की गीता के अनुसार जाती व्यवस्था निम्नवत है …….
१..जाति जन्म आधारित न होकर कर्म आधारित है।
२..बुद्धिमान व्यक्ति सभी को सामान दृष्टी से देखता है ।
३..व्यक्ति को वही कार्य करना चाहिए जिसमे उसका मन लगता हो ।
४..किसी भी वर्ण का कार्य समाज को चलाने के लिए सामान महत्व रखता है ।

1-भगबान किशन ने वर्ण बाद को जन्मजात नही स्वाभाव कर्म गुण के आधार पर बताया है और किसी का स्वभाव और गुण जन्म के बाद पता चलते हैं ना की पहले, इस परकार तो जातीबाद या वर्ण बाद किसी भी हालत मे जन्म जात होना असंभव है इससे सॉफ होता है की किर्षन ने कर्म का वर्गीकर्ण किया ना की इंसानो का ,और जब कर्म का वर्गीकर्ण होता है तो पध वनता है ना की जाती , इस परकार वर्णबाद मे 4 पदों का उल्लेख है ना की इंसानो के वर्गीकर्न का ,���र एह ची�� उस समय के आधार पर सही ठैरा ई जा सकती है पर आज के हिसाव से नही , समय के साथ साथ 2 कर्मो का विस्तार होता जाता है और  पदों की संख्या और कार्य और नाम बदलते रहते है इसलिए आज के जमाने मे अनेक पद���द है इसलिए उन पदों का कोई महेत्व नही है इस लिए आज के समय मे एह बिवस्ता निरर्थक है और स्वीकार्य नही है अवस्यकाता हीन है

अगर हम मान ले की भगबान श्री क्रशन ने वर्ण-बियवस्ता को कर्म आधार पर शिध किया था पर उनेह इस स्पस्ट करने की अवस्यकता क्यू पड़ी ? इसके निम्न कारण हो सकते हैं 



1-उस समय वर्ण बाद जाती गत था भ्ले ही उस समय अंतर वर्णीय विवाह हो जाते थे इस पर कोई प्रतिबंध नही थे परंतु फिर भी उँच -नीच की भाबना प्रबल थी और बदती ही जा रही थी.



2-द्रोप्ती दुआरा कर्ण के प्रेम को ठुकराना,एकलव्य का अंगूठा काटना,कर्ण को विद्या  भूलने का श्राफ देना एह सब जन्म जात जाती और उँच नीच की भाबना के करण हुआ था



3-वर्णो का स्पस्टी कर्ण देने के बाद क्रशन ने अपने आप को इन चारो बरणो से परे और वर्ण हीन बताया था क्यू की वो बहुत अच्छी तरह से जानते थे की ईश्वर् का वर्ण निश्चित किया गया तो एह बहुत ही घातक होगा  



क्रष्ण जी के स्पस्टी करण से सॉफ होता है की वर्ण व्यवस्था इंसानो को नही बाँटती है बल्कि कर्मो को बाँटती है और कर्म के आधार पर पद्द बांटे जाते है इंसान नही ,किओंकी इंसानो को किसी भी आधार पर वर्गीकर्त नही किया जा सकता है अगर किया जाता है तो उसमे 100% उँच-नीच की भाबना पनपे गी जो कभी हिंसक रूप भी ले सकती है इस लिए वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर पद्दो को बांटने की व्यवस्था है  

पद्दो की बिशेस्ता 

आ) पद्दो की संख्या आबस्यकता के आधार पर कम -जादा होती रहती है 

ब) पद्दो पर आदमी अपनी योग्यता  के आधार पर बैठता है जन्म के आधार पर नही अगर कोई मोहबस अपने अयोग्य पुत्र को बैठता है तो वो उस पद्द और कार्य के लिए घातक होता है 

स) एक आदमी कई पद्दो  पर एक साथ भी या एक एक कर अपनी योग्यतानुसार बैठ सकता है जैसे आज के नेता 2-2 पद्दो पर बैठे हैं 

द) एक आदमी अपने एक जीवब मे अनेक पद्दो पर बैठ सकता है

ज) एक आदमी एक ही दिन मे चारों पदों पर कार्य करता है (आफिस मे जाकर"कार्यस्थल" लोगों की सेवा कार्य करके शूद्र,किसी प्रताडित की रक्छा करके छतरी,लेन-देन करते समय वैस्य,और अपने बच्चों को पदाते समय ब्र्हाम्न) 

अत : स्पस्थ है की आज के जमाने मे असंख्य पद्द होने के कारण वर्ण व्यवस्था निरर्थक और उपयोग हीन है इसका कोई महेत्व नही है

जन्म ज़ात कोई काम नही होता है मेरे पिता जी योग्य किसान है पर मुझे अकाऊंटिंग अच्छी लगती है जादातर केसों मे पिता और पुत्र के काम के शौक मे बहुत अंतर होता है पहेल्बान की औलाद पहेल्बान नही  होती है ज़रूरी नही की डॉक्टर के वेटा डाक्टर नही होता है  और ना ही लेखक का वेटा लेखक नही होता है अगर होता तो उसे अपबाद ही कहा जायेगा ,पर इतना ज़रूर होताहै की हर आदमी अपने शौक को अपने बच्चों पर थोपना चाहते है जो की गलत है   

स्मिर्ति से

मनुस्मृति में कहा गया है कि
हीनांगनतिरिक्तांगहीनाव्योऽधिकान्।

रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्।।

           ‘‘ऐसे व्यक्तियों का मजाक  उड़ाना या अपमानित करना निंदनीय है जो किसी अंग से हीन, अधिक अंग वाले, शिक्षा से रहित, आयु में बड़े, कुरूप, निर्धन तथा छोटी जाति या वर्ण के हों।’’

1. सर्वोच्च निर्माता ब्रह्मा मानवता के कल्याण के लिए उसके मुंह, अपने क��धे, अपने पैरों से उसके जांघों और शूद्रों से वैश्य से क्षत्रियों से ब्राह्मणों को जन्म दिया है. (मनु कोड मैं-31,) 

2. भगवान ने कहा कि एक शूद्र का कर्तव्य ऊपरी वर्णों और बड़बड़ा बिना भक्ति के साथ ईमानदारी से काम करने के लिए है. (1-91 मनु) मनु    स के साथ संतुष्ट नहीं है. वह शूद्रों क����������������������� इस ग़ुलामी का स्थिति है कि समुदाय के लिए संबंधित व्यक्तियों के नाम और सरनेम्स में व्  क्त क   ना चाहता है. मनु का कहना है: 

3. चलो एक ब्रह्म के नाम के पहले भाग शुभ कुछ निरूपित, क्षत्रिय शक्ति के साथ जुड़ा हो सकता है, और धन लेकिन एक शूद्र व्यक्त घृणित कुछ के साथ एक वैश्य. (मनु द्वितीय 31.) 4. एक ब्राह्मण के नाम का दूसरा हिस्सा एक खुशी है जिसका अर्थ एक क्षत्रिय के शब्द संरक्षण (एक शब्द) जिसका अर्थ है एक एक संपन्न की अर्थपूर्ण शब्द है वैश्य और एक शूद्र की एक अभिव्यक्ति डेनोटिंग सेवा, किया जाएगा. (मनु द्वितीय 32.) 
5. एक सौ वर्ष पुराने क्षत्रिय अपने पिता के रूप में एक दस साल पुराने ब्राह्मण लड़के का इलाज करना होगा. (मनु 11-135) 
6. ब्राह्मण भोजन के लिए अन्य वर्णों के लोगों को कभी नहीं आमंत्रित करना चाहिए.
मनु स्मिर्ति मे इतना विरोधाभास है की इसे धार्मिक ग्रंथ मानाने पर धर्म का ही अपमान है और तो और हिन्दू धरम के लोग विदुआनो के सामने मूह भी नही उठा पायेंगे, अन्य धर्मों के सामने सिर्फ इसी किताबों और पुराणो के कारण सबसे जादा शर्मिन्दा

इन इस्मिर्तिओं से जातीबाद के दो ही सिधांत निकल कर सामने आते है

1- जातिवाद जन्मजात होता है अपने कर्म को परिपक्व बनाने के लिए !
2- जो लोग अच्छे काम करते हैं उने उच्च वर्ण मे जनम मिलता है पुण्य कर्मो का भोग करने हेतु और जो लोग गलत कार्य करते है उनेह निम्न वर्ण मे जन्म मिलता है सज़ा भुगतने के लिए और उस सज़ा को भुगतना उस निम्न वर्ण बाले का धार्मिक कर्तव्य है एही उसका धर्म है

अब हम बात करते है जो कहते हैं की अलग 2 वर्णो मे इंसान को उसके पूर्ब कर्मो के आधार पर जनम मिलता है एह बात बहुत ही गलत और अमानवीय है 

1-जो जैसा कर्म करता है उसे इसी जन्म मे सज़ा या फल मिलता है है

2-बुरे कर्मो का फल येंही मिलता है ना की अगले पिछ्ले जनम मे अगर कंही पर ऐसा होता है तो उसकी यादास्त नही जाती है क्यू की अगर अपराधी को यादस्त जाने पर सज़ा मिलती है तो एह भी एक पाप है 

3-अगर कोई निम्न कर्म करता है और सज़ा के तौर पर उसे निम्न वर्ण मे जनम  मिलता है और उसकी यादास्त मे पिछछ्ले जन्म के कर्मो की याद नही है तो एह ईएश्वर् दुआरा उस पर किया गया अनैतिक अत्याचार ही माना जाये गा कोई स्ज़ा नही 

4-अगर कोई किसी का कतल कर दे और उसे फांसी के सज़ा वॉल दी जाये और सज़ा के समय उसकी यादास्त चली जाये तो क्या कानून उसे फांसी पर लटकायेगा कभी नही फिर भगबान बिना याद दिल्ल्लाये कैसे सज़ा दे सकते हैं 

5-आवा���मन कर्म आधारित नही हो सकती है एह एक एकांतर क्र्म मे क्रामिक क्रिया होती है एक के बाद एक जनम की क्रिया हो सकती है जो लोग कहते है वो सब लोगों को डराने के लिए कहते हैं  जो कहते हैं की आवागमन कर्म के आधार पर होता है तो में उनसे सिर्फ इतना ही पूछूँगा की सबसे पहले जब भी इस श्रिस्टी का निर्माण हुआ होगा और पहला कीडा (जीव) जब पैदा हुआ होगा उसे किस जनम के बुरे कर्मों के कारण कीडे का जनम मिला और जो पहला मानव पैदा हुआ उसे किस जनम के भले कर्म का फल मिला ,इसलिए आवागमन कर्म आधारित नही होता है वो एकांतर क्र्म मे हो सकता है जिसका जब नंबर आया तब उसे आबस्यकता अनुसार किसी भी योनि मे जनम मिल सकता है .किसी विशेस कर्म के कारण अगर ईएश्वर् अपनी इच्छा से कोई विशेस जन्म  भी दे सकते हैं 

नोट : कुछ लोग इस प्रश्न के विरोध मे मुर्गी और अंडे बाली कहानी रख सकते है पर वो कहानी तर्कहीन है.

6-पुनर्जन्म भी अपूर्ण उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए हो स��त�� ह��� 

आता: मानव को  जन्म के आधार पर जाती या धरम मे बाँटना अमानवीय,अनैतिक,निन्दनीय,और सबसे नीच कार्य है इसे समांप्ट करना ज़रूरी है

सरकारी जातियाँ :

सरकार ने भी कई वर्ग बनाये है जो की गलत है और देश कर लिए बहुत ही घातक है आदमी किसी भी आधार पर वटा हो उसमे उँच- नीच की भाबना पनपना एक सामान्य बात है  और अगर नही पनपु तो अपने अधिकार हनन की भाबना ज़रूर पनपेगी ,आज इसका दुरपयोग ही हो रहा है अधिक जानकारी के लिए लिंक  पड़ें .



आ) जब आय प्रमाण पत्र वनता है तो फिर जाती प्रमाण पत्रों को बनाने क्या फायदा है 

ब) जो लोग अरकछन का विरोध करते हैं वो  गधे हैं किओंकी अरकच्छन की जड है जन्म जात जाती और वर्ण जब जाती बाद खतम होगा तब अरकच्छन स्वता खतम हो जायेगा बुराई का पेड़ जड उखाड़ने से खतम होता है ना की फुल्छि काटने से,आरकछन नही जातीबाद का विरोध करे किओंकी  जब तक जातीबाद रहेगा आरकछन मांगने बाले लड़ते रहेंगे !
कुछ प्रश्न
1-क्या जो जातियाँ अरकछन के अंतर्गत आती हैं उनमे सभी दलित है ?
2-क्या जिन जातियों मे अरकछन मिलता है क्या उनमे बास्टव मे हकदारों को ही मिलता है या फिर कुछ गिने चुने लोगों को ही मिलता है ?
3-क्या इन जातिओं मे अमीर नही होते हैं
4-जिन को अरकछन नही मिलता है क्या उन जातिओं मे सभी अमीर है और अगर नही है तो क्या उनके साथ अन्याय नही है 
5-जो वास्तव मे अरकछन के हकदार है उनेह दलित होने के बाद भी लाभ नही मिलता है क्या एह अन्याय नही है ?
6-अगर जातीबाद रहेगा तो क्या कट्टरबादी और जातिसम्मोहक लोग सिर्फ अपनी जाती के अधिकारो के हनन और अन्याय के नाम पर नफरत नही फैलायेंगे ?
ऐसे अनगिनत करण है जिनके अधार पर शिद्ध किया जा सकता है की जाती बाद के रहते अरकछन मिटाना तो दूर की बात है सोचना भी अपराध है इसलिए जो लोग अरकछन का विरोध करते हैं उनेह इसकी मूल जड जातीबाद का विरोध करना चाहिए !

स) आज सभी देश के लिए कम अपने मजहव के लिए जादा लड़ते-मरते है जिधर देखो फलां जाती की महा सभा तमाशा बना रखा है देश और धरम का .


मनुबादियों का अति मोह 
1-आज हमारे कुछ स्वर्ण भई लोग कहते है की ज�� हुआ सो भूल जाओ ठीक है भूलने को तयार है पर क्या वो गारंटी देंगे की अब कोई किसी के साथ भेद-भाव नही करेगा पिरताडित नही करेंगे और अगर कंही ऐसा होता है तो धार्मिक लोग उनका बहिस्‍कार करेंगे या उनेह दंडित करेंगे पर इसका जबाब इनके पा��� नही है पर हमारे पास है की जातीबाद पर पूर्ण प्रतिबंध हो,
2- कुछ भई कहते है की दलितों को ब्राह्मण हो जाना चाहिए तो भाई जब सारे बर्ण बराबर हैं तो फिर ब्राह्मण् बनने या ना बनने का कोई महेत्व ही नही होता है और वर्ण कोई जाती ही नही बल्कि पद्द होते है एक आदमी एक ही दिन मे चारो पद्दोन पर कार्या करता है हर इंसान के पास चारों वर्ण होते है तो वर्ण परिवर्तन का कोई महेत्व ही नही है व्राहमण भी तो शूद्र होता है ! जब जन्म जात कुछ होता ही नही है तो फिर जात आई ही कान्हा से , ज़रूरत जात बदलने की नही बल्कि इसपर पूर्ण प्रतिबंद की है और एही समय की मांग है इसी मे देश,धर्म,इंसानियत का भला हो सकता है .
3-जब कंही दलित पर अत्याचार होता है तो अपने आप को स्वर्ण कहने बाले कभी विरोध करते हैं एह बात अलग है की अगर कोई किसी पेपर या चैनल या किसी संस्था से जुड़े होने पर विरोध करे पर एक स्वर्ण होने के नाते कभी विरोध नही करता है वो चाह कर व्ही नही कर सकता है उसकी जाती उसे विरोध करने से रोकती है भले ही उसकी ��ाती ऐसा ना करती हो पर उसे दिल से ऐसा अबस्या महसूस होता है
आज हन सभी जानते है की देश और धरम का सबसे जादा नही अपितु सारा नुकसान सिर्फ वर्णबाद,जातीबाद के करण हुआ है
सिमटता भारत 
1-अफ़ग़ानिस्तान सन 1876 मे अलग हुआ 
2-नेपाल  सन 1904 मे अलग हुआ 
3-भूटान सन 1906 मे अलग हुआ 
4-तिब्बत सन 1914 मे अलग हुआ
5-वर्मा सन 1937 मे अलग हुआ 
6-पाकिस्तान सन 1947 मे अलग हुआ 
7-बांग्ला देश सन 1947 मे अलग हुआ
8-चीन ने 41 हज़ार वर्ग मीटर जमीन छीनी सन 1962 मे 
9-कश्मीर 70 % से जादा पाकिस्तान छीना बाकी छीनने का कार्या प्रगति पर
10-कश्मीर से मनुबादियों का सफाया 
11- कश्मीर,उत्तर प्रदेश,बंगाल,असम,हैदराबाद अशान्ति की चर्म सीमा पर है और हिन्दुत्व ................ का कार्य प्रगति पर है 
और हम क्या कर रहे है 
1-जातिओं मे बट कर लड कर मर रहे है एक दूसरे को उँचा-नीचा समझ कर मर और मार रहे हैं 
2-अरकछन के नाम पर लड रहे है 
3-जाती,गोत्र,धरम और प्रमे विवाह को अपमान मान कर ,अपने और अपने ही मासूम बच्चों को जिंदा जला कर मार देते हैं सोचो मेरे भाईओं जो धरम अपने मासूम बच्चों को गोत्र और जाती के नाम पर जिंदा जलाएगा वो कैसे फूल -फल सकता है इसलिए खांपियन,कठमुल्ले,कट्टरबादी,  देश और धर्म और इंसानियत के दुसमन है इनका सफाया ज़रूरी है इसलिए इनका खुलकर विरोध करें 

आखिर कब स���धरेंगे हिन्दू ,मनुबादी सिर्फ एक वर्ग से उनका प्रेम उनेह ही खतम कर रहा है कश्मीर इसका उधारण है 
आज स्वर्ण ससक्त है और अपने को सम्मानीय समझता है पर कब तक एह भी तो हो सकता है की आज जो दलित है कल को अरकच्छन या अपनी मेहनत से 20-30 सालों मे स्वर्णो से बहुत ससक्त हो जायें और अपमान के प्रतिशोध के रूप मे स्वर्णो पर ही ज़ुल्म करने  लगें तब क्या होगा समय हमेशा बदलता रहता है इस दुनिया मे कुछ भी हो सकता है इंसान को किसी भी आधार पर बाँटना सिर्फ घातक है और अमानवीए है 
इसलिए कुछ ऐसा करो जो अधिक समय तक समानता बनी रहे 

निष्कर्ष :



1-जातीबाद पर  पूर्ण रूप से रोक लगे (जाती पूछने,बताने,लिखने पर दंड ह�� )
भगबान वर्ण रहित है -----श्री क्रष्ण जी   ,जात रहित होता है संत (जात ना पूछै संत की )----श्री कबीर दास जी फिर मानव की जात किसलिए है क्यू है एह अधर्म इस देश मे ,स्पस्ट है मानव को किसी भी आधार पर वांटना अमानवीए और अधार्मिक और इंसानियत के विपरीत है

2-सिर्फ एक ही कार्ड बने  जिसमे  (नाम,पता,आयु,आय का विवरण) हो जिसके आधार पर छूट दी जाय  आरकछन नही

3-वेदों से  पुरुष सूक्त  निकाला जाये और उनेह सुध किया जाये 

जाती और धर्म का विवरण किसी भी सरकारी और प्राइबेट कागजों मे नही लिखना चाहिए 



बुधवार, 6 फ़रवरी 2013


हिन्दुत्व का कलंक मनुस्मृति- जातिमुक्त भारत हेतु- 2



मेरा उद्देश्य 
1- हर हिन्दू अपने नाम के आगे से जातिसूचक शव्द हटाकर गुण बाचक शब्द लगाये !
2-कोई किसी की जात ना पूछे ना बताये !
3-जातीबाद को खतम करवाने हेतु सरकार पर कानून बदलकर जातीबाद पर पूर्ण बैन लगाने हेतु दवाव बनाने हेतु हिन्दू एकता के लिए समाज को जागरूक करना 
4-जातीबाद-गॉत्रबाद महा पाखंड और अंधविस्वास इनपर तुरंत रोक हेतु सरकार पर दबाब बने 
5-जो संगठन जातीबाद और गोत्र जैसे पाखंड के नाम पर बच्चो का कतल करबाते हैं उनेह तुरंत आतंकी संघटन घोषित करके उसमे काम करने बालों को को जेल मे डाला जाये ताकि एह अमानवीय आतंक समाप्त हो सके.
6-आज तक सिर्फ प्रेमी ही इसका विरोध करते रहे हैं पर अब समय आ गया है जब पूरा समाज मिलकर इस कलंक के खिलाफ खड़ा हो .
7-आर्य समाज,संघ,अन्य ध्रमिक संघटन और अग्नि वीर जैसी साइटें भी इस गोत्र और जातीबाद का घोर विरोध करें और समाज को जागरूक करें ना की वर्ण वियावस्था का समर्थन .
8-में किसी जाती या वर्ग का विरोध नही कर रहा हूँ में पूरे सिस्टम का विरोध कर रहा हूँ 
9-हिन्दू,हिन्दुस्तान की एकता और अखंडता के लिए परम अबस्यक है 
10-नारी जाती को पूर्ण स्व्न्त्र्ता हो कुछ भी करने को,अपने फैसले लेने के लिए .
 Note : वेद ही सर्वोपरि हैं

बाबा साहव अम्बेडकर ने कहा है की जो अपना इतिहास नही पड़ते और समझते है वो कभी इतिहास नही बना सकते है

कौटिल्य चाडक्य जी ने कहा है ,अपने जीवन मे कुछ करना चाहते हो तो दूसरो के जीवन और इतिहास से सीखो किओंकी तुमे खुद अपने जीवन से सीखने के लिए जिंदगी बहुत कम पड जायेगी और सीखते ही रह जाओगे कुछ नही क्र पाओगे .

जो लोग कहते हैं की भेद-भाव सामान्य बात है तो जान लें की भेद-भाव सामान्य बात नही है शारुख ख़ान जिसके अरवों फैन है और करोड़ो रुपये शायद रोज़ कमाता हो जब इस भेद-भाव से टूट कर सारे आम अपने दुख का बयान करता है तो एक आम की क्या औकाद है इस भेद-भाव को सहेन करने की

बिस्व का सबसे महान और सहेन शील,दान वीर कर्ण भी इसी भेद-भाव से आहत होकर दुखी मन से कुछ गलत बोल गये थे तो आम आदमी क्या है

"" लकच्य भेद को चले कर्ण तब कड़क द्रोप्ती बोली
साबधान् मत आगे बॅडना होनी थी जो होली ,
सूत पुत्र के साथ ना मेरा गठ बन्धन हो सकता
छत्त्राडि का प्रेम ना अपने गौरव को खो सकता ""  karn khand kavya
द्रोप्ती ने जातीबाद के कारण अपने प्रेम को ठुकरा दिया और पांच मूर्ख पांडवों की पत्नी (वैस्या) बन गई किओंकी वेदों मे पांच पति बाली औरत को वैस्या कहा गया है

इसी प्रतिकार कार के कारण कर्ण के मुख से एह अबसबद निकले थे

""दुशासन मत ठहर वस्त्र हर ले किर्सना के सारे
बह पुकार ले रो 2 कर चाहे बह जिसे पुकारे ""    Karan khand kavya


आज ख़ान के मुख से वेदना सामने आना एक सामान्य सी बात नही है बल्कि दिल का दर्द है

किसी एक की गलती की सज़ा पूरी कौम को नही दी जा सकती है पूरी कौम के साथ नफरत बाली बातें क्यू होती है


सचाई छिप नहीं सकती बनावट के उसूलों से,
कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से॥
आज कल वर्ण व्यवस्था के ठेकेदारों ने चा�����ों तरफ शर्मा वर्मा की धूम मचा रक्खी ह���। आधार के लिए वही स्वामी जी का भ्रमोत्पादक लेख पेश कर दिया जाता है। परन्तु यह काम अब पोची दलीलों से पूर्ण नहीं हो सकता है। शर्मा वर्मा की सिद्धि के लिए वेद, इतिहास और पुराणों के प्रमाणों को प्रस्तुत करना पड़ेगा। कहा भी है-‘‘इतिहास पुराणाभ्यां वैदार्थ उपवृंहयेत्’’ इसलिए इतिहास पुराण को सर्व प्रथम लीजिए। महाभारत तक इतिहास और पुराण इस बात की साक्षी नहीं देते हैं कि किसी भी ऋषि मुनि ने या ब्रह्मर्षि राजर्षि ने अपने नाम के साथ वर्ण व्यवस्था का प्रकाश करने के लिए शर्मा वर्मा का प्रयोग किया हो। सृष्टि के आदि में जिन चार ऋषियों पर वेद प्रकट हुए-वे भी कोरे अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा कहलाए। अग्निशर्मा, वायुवर्मा, आदित्यगुप्त और अङ्गिरादास का प्रयोग आज तक सुना या देखा नहीं गया। गौतम कपिल कणाद शर्मा नहीं लिखते थे। राजा अश्वपति, जनक और राम वर्मा नहीं लिखते थे। कहीं रामायण में राम वर्मा या हनुमान वर्मा की चर्चा नहीं। हाँ! महाभारत में कृतवर्मा और महाभाष्य में इन्द्रवर्मा मिलता है सो भी समस्त नामों में वर्मा वर्ण व्यवस्था का द्योतक नहीं अपितु वह नाम ही हो जाता है। आज जैसे श्रीकृष्ण में श्री, रामजीलाल में जी और भगवानदास में भगवान नाम ही हैं। जब इतिहास और पुराण से शर्मा वर्मा पुष्ट नहीं हुवे तो फिर वेदों में इनका पता पाना आकाश के फूलों और बन्ध्या के पुत्रों के समान असम्भव है। चारों वेदों में कहीं ‘शर्मा’ शब्द नहीं आया है। हमने कई बार पोप पण्डितों को चैलेंज दिया कि कोई भी चारों वेदों में शर्मा शब्द दिखलावे। इस पर कई पण्डितम्मन्यों ने बृथा प्रयास भी किया कि वेदों में शर्मा शब्द है, क्यों कि ‘शर्म में यच्छ’ ऐसा अनेक स्थानों पर वेद में आया है। इन बेचारों को पता नहीं कि ‘शर्म’ नपुंसक लिंगी है। हम पुलिंग वाची शर्मा शब्द के लिए चैलेंज देते ���������ैं। तब ‘सुशर्मा’ दिखा दिया। जैसे रोटी माँगी तो डबल रोटी ले आए। फिर बात तो वही रही। यहाँ भी वही भूल करते हैं। सुशर्मा में भी सु-शर्म है। हमारा तो चैलेंज यह है ‘शर्मा’ शब्द पुलिंग वाची स्वतन्त्र रूप से चारों वेदों में कहीं नहीं। जब वेदों में शर्मा शब्द ही नहीं तो वेचारी वर्ण व्यवस्था को इस शब्द से कैसे पुष्टि मिल सकती है इसलिए नामों के साथ शर्मा शब्द स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नहीं हो सकता। जैसे-क्षेत्रपाल शर्मा, ठाकुरदत्त शर्मा और देवेन्द्रनाथ शर्मा। हाँ! देवशर्मा, विष्णुशर्मा और भद्रशर्मा नाम ठीक हैं; क्योंकि इन नामों में शर्मा शब्द नहीं हैं ‘शर्म’ है और संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार दीर्घ होकर शर्मा बन गया है। ऐसे ही नामों के लिए महा पण्डित स्वामी दयानन्द जो ने गौणरूप से आज्ञा दी है परन्तु यहाँ तो मनचले स्वार्थी लोग रणछोड़दास शर्मा, शेरसिंह शर्मा (डबल शेर) कूड़ामल वर्मा (डबल कूड़ा) घीसूलाल गुप्ता आदि बने हुए हैं।
एक और बड़े मजे की बात-एक विकट शास्त्री कोरी संस्कृत बोलते हुए मैसूर से सीधे हमारे पास पहुँचे। कहने लगे कि हम वेदों में ‘शर्मा’ शब्द दिखायेंगे। मैंने कहा दिखाइए। बोले ‘शर्मासि मे शर्म यच्छ’ में शर्मा + असि है। मैंने कहा कि शर्म + असि है। बोले नहीं; क्योंकि शर्मन् + असि था और न का लोप असिद्ध होगा। अतः दीर्घ न हो सकेगा। इसलिए ‘शर्मा असि’ ऐसा ही मानना पड़ेगा। हमने झट उससे अगला सूत्र बता दिया कि ‘न लोपः सुप्स्वर संज्ञा तुग् विधिषु कृति’ बस चुप हो गए। प्रयोजन यह है किसी भी प्रकार ‘शर्मा’ शब्द वेदों में दिखाने के लिए वेद मंत्रों के नाक कान मरोड़ने का भी प्रयत्न करने में ये मनचले नहीं चूकते। फिर भला शर्मा बूट हाउस, शर्मा टेलरिंग हाउस और शर्मा वा�������� कम्पनी लिखने में अज्ञों को क्यों संको�� होवे? ‘शर्मा होटल’ तो एक जन्म सिद्ध अधिकार ही माना जाता है।
इन बेचारों को यह तो पता ही नहीं कि शर्मा शब्द का अर्थ हिंसक (मारने वाला) है। ये लोग धातुपाठ तो पढ़े ही नहीं-नहीं तो पोप पण्डितों के पाखण्ड में क्यों पड़ते? ‘शर्मा’ शब्द की सिद्धि के लिए आज तक कोई भी पण्डित ‘शृहिंसायाम्’ के सिवाए दूसरी धातु नहीं खोज सका। ‘शर्मा’ शब्द शृहिंसायाम् से बना है। स्वामी दयानन्द ने स्वयं लिख दिया है कि-
‘सुष्ट शृणाति इति सुशर्मा राजा विशेषतः’ अर्थात् जो भली प्रकार दुष्टों को दण्ड दे (मारे) वही सुशर्मा राजा है। यहाँ सुशर्मा ब्राह्मण नहीं है। क्षत्रिय है-तब शर्मा ब्राह्मण वाची क्यों होगा? इसी प्रकार यजु. 8/8 में स्वामी दयानन्द ने सुशर्मा का अर्थ किया है कि-
‘सुष्ठु शोभनं शर्म गृहं यस्य स सुशर्मा’ अर्थात्-जिसका घर अच्छा बना हो वह ‘सुशर्मा’ हुआ। अब सोचिए घर किसका अच्छा बना हो सकता है। क्या वैश्य ‘सुशर्मा’ नहीं कहला सकता है? अवश्य-तो फिर ‘शर्मा’ ब्राह्मणवाची कैसे हुवा!!! नहीं हो सकता।
कई लोग ‘सुशर्मा’ में मनिन् प्रत्यय सिद्ध किया करते हैं। यहाँ अब हम यह एक बार ही बता देना चाहते हैं कि ‘सुशर्मा’ में मनिन् प्रत्यय नहीं है। प्रत्युत ‘मुनिः’ प्रत्यय है। यह सूक्ष्म भेद है-परन्तु पोप पण्डितों की पण्डिताई का परिचय कराने के लिए यहाँ हम लिखते हैं। औणादिक सूत्र है।
‘मिथुनेमनिः’ इससे सुशर्मा, सुधर्मा, सुकर्मा में ‘मनिः’ प्रत्यय होता है। स्वामी दयानन्द ने स्वयं लिखा है-
यत्रोपसर्गों धातु क्रियया सम्बद्धस्तत् मिथुनम्। तस्मिन् सति उक्तेभ्यो वक्ष्यमाणेभ्यश्च धातुभ्यः मनिः प्रत्ययः स्यात्। न तु मनिन्। स्वरभेदार्थों नियमः।
जब स्वामी दयानन्द ने भ�� स���प���्��� लिख दिया कि ‘मनिन्’ प्रत्यय नहीं है-तो आज तक ‘सुशर्मा’ में ‘मनिन्’ प्रत्यय लिखने वाले परास्त हो गए। यहाँ इतने शब्द लिखने का प्रयोजन यही है कि यदि पाण्डित्य का अभिमान हो तो उसके लिए भी हम सदैव सन्नद्ध हैं। हम तो कहते हैं कि-
नखानां पण्डित्यं प्रकटयतु कस्मिन् धृतमतिः॥
एक बात विचारणीय और है-वह यह कि ‘शर्मा’ शब्द का प्रयोग किया भी कैसे जावे यदि स्वयं अपने गुण कर्मों का निश्चय प्रत्येक करने लगे तो व्यवस्था न रहेगी और दूसरी कोई सभा या समिति यह अधिकार नहीं रखती कि ‘शर्मा वर्मा’ की उपाधियाँ दे और यदि देवे भी तो बिना राज्य सत्ता के कौन स्वीकार करे कराएगा। हाँ! जन्मना ब्राह्मण शर्मा बने रहे और क्षत्रिय वर्मा तो फिर प्रचलित वर्ण व्यवस्था (जात-पाँत) का महान रोग सताये बिना नहीं रहेगा। यह हो ही रहा है। आर्यसमाज में भी यही हो रहा है। एक लखपती भी शर्मा है। एक व्यापारी भी शर्मा है, एक होटल धारी भी शर्मा है, एक सट्टेबाज दलाल भी शर्मा है। फलतः नाई शर्मा, खाती शर्मा, लोहार शर्मा भी सिद्ध हो चुके हैं। इनका यह ‘होलसेल’ शर्मा एक बड़ा भद्दा मजाक हो रहा है। इसलिए इस शर्मा वर्मा का प्रपंच मनुस्मृति से ही प्रारम्भ हुआ है। यद्यपि ‘शर्मवत् ब्राह्मणस्य स्यात्’ ऐसा ही मनुस्मृति में है। जिसका अर्थ यह होता है कि मंगलवाची नाम ब्राह्मण का होना चाहिए। जैसी कि वेद में आशा है कि ‘शिवोनामासि’ अर्थात् हे उपदेशक! (ब्राह्मण) तेरा नाम शिव है। तो भी लोगों ने वेद विरुद्ध शिवशर्मा बना दिया है। भला इस डबल कल्याण से क्या प्रयोजन!!! शिव का अर्थ भी कल्याण और शर्मा भी इनके मत में कल्याणवाची है। देखिए-
शर्मवत् ब्राह्मणस्य स्यात् राज्ञो रक्षा समन्वितम्।
वैश्यस्य ��न ���ं���ुक्तं, शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥
यह मनुस्मृति का श्लोक ही मनुष्य समाज में विषमता फैलाए है और विशेषरूप से शूद्रों को दलित और अछूत बनाये है। मनुस्मृति ने इस श्लोक द्वारा आज्ञा दी है कि शूद्र का नाम बड़ा घृणित रखना चाहिए। जैसे घसीटाराम, कूड़ाराम, कूड़ामल (डबल कूड़ा) गरीबदास इत्यादि। शूद्र को ‘दास’ बनाने वाली इस मनुस्मृति के विरुद्ध जितना भी आन्दोलन किया जावे कम है। खेद तो तब होता है जब हम स्वामी दयानन्द के लेखों में भी देवदास आदि नाम पाते हैं यद्यपि स्वामी जी ने टिप्पणी में लिख दिया है कि दास वाले नाम निषिद्ध हैं-तो भी मूल में ऐसे भ्रमोत्पादक लेख का पाया जाना, उन जैसे आदर्श सुधारक के लिए शोभा नहीं देता। यदि स्वामी जी यह लेख न लिखते तो शायद आज आर्यसमाज में से वर्ण व्यवस्था की मुसीबत को मिटाने में हम लोगों को इतना भगीरथ-प्रयास न करना पड़ता। वास्तव में वह लेख है गौण रूप में-तो भी स्वार्थी लोग मुख्य रूप से उसको ग्रहण करते हैं और वर्ण व्यवस्था का बोझा आर्यसमाज पर बुरी तरह लादना चाहते हैं। हमारी सम्मति में तो शर्मा और वर्मा बिलकुल भद्दे और बेहूदे शब्द हैं। इनका बहिष्कार सबको मिल कर करना चाहिए। नहीं तो शनैः-शनैः यह ‘शर्मा’ का शोर जोर पकड़ जाएगा और भारतवासियों में लगभग आधे लोग शर्मा (हिंसक) बन जायेंगे। शर्मा के सम्बन्ध में अब हम यह भी बता देना चाहते हैं कि यह शर्मा शब्द का प्रयोग बौद्ध काल में प्रारम्भ हुआ है। बौद्धकाल के प्रारम्भ में भारत के ब्राह्मण यज्ञों में पशुओं का बलिदान खूब किया करते थे। भगवान् बुद्ध ने जब ऐसे कराल काल में ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का प्रचार किया-तब भी ये लोग जिह्वा के वशीभूत होकर मांस खाने के लिए यज्ञों में पशुबध करते ही रहे। उन्हीं दिनों अन्य श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने इन हिंसक ब्राह्मणों का नाम छेड़ के तौर पर ‘शर्मा’ रख दिया; क्योंकि शर्मा शब्द का अर्थ हिंसक भी हो��ा है��� इस ��्रकार न तो इतिहास शर्मा का साथ देता है और न पुराण और नाँहीं कहीं वेदों में इस का पता पाया गया। फिर न जाने यह एक आफ़त किधर से आकर भारतीयों के गले पड़ गई। इस शब्द का प्रयोग पहले कम होता था-परन्तु स्वामी दयानन्द के आन्दोलन के बाद लोगों ने अन्य सब शब्दों का परित्याग कर के परिमार्जित परिपाटी के अनुसार शर्मा-वर्मा लिखना शुरू कर दिया। अब इस का इतना अधिक दुरुपयोग हो रहा है कि शर्मा की मट्टी पलीद हो गई है। शायद यह हमारी समझ में आ भी जाता, यदि जन्ममूलक जात-पाँत के आधार पर इन शब्दों का प्रयोग न होता-परन्तु हुआ वही जो अन्य शब्दों के साथ था। जन्ममूलक ही शर्मा वर्मा बन बैठे। इसलिए ये निकम्मे शब्द अब हमारे किसी काम के नहीं रहे। इन से हमारा जितना शीघ्र पिंड छूटे उतना ही शीघ्र कल्याण हो जावे। भगवान् भारत की भँवरों को भरपूर रखने के लिए भारतीयों को इन भ्रम की भँवरों से शीघ्र निकाल देवे।
इस सम्बन्ध में अखिल भारतीय श्रद्धानन्द-दल, देहरादून के विद्वान् दलपति श्री पं. धर्मदेव जी शास्त्री सांख्य-योग-वेदांततीर्थ, दर्शनकेसरी का लेख भी हम उद्धृत करते हैं-ताकि आर्यजनता उक्त प्रशंसित पंडित जी के विचारों से लाभान्वित हो सके।
‘‘आर्यसमाज की सर्वतोमुखी प्रवृत्ति को रोकने को कारण जन्ममूलक वर्ण व्यवस्था (जात-पाँत) है। अतः उसे स्वयं तोड़ना तथा दूसरों को तोड़ने की प्रेरणा करना तथा भविष्य में अपने तथा अपने सम्बन्धियों का विवाह जन्ममूलक जात-पाँत को उपेक्षापूर्वक ही करना चाहिए। यहाँ इस बात का निर्देश करना भी अनुचित न होगा कि वर्तमान शर्मा, वर्मा, गुप्त आदि उपाधियाँ तथा वाजपेयी, शुक्ल, सिन्हा, पाठक, सेठ, सेठी आदि उप-उपाधियाँ भी जन्ममूलक जात-पाँत की पोषक हैं। अतः इनका प्रयोग करना उचित नहीं। साथ ही ��ब त��� ब्राह्मणादि न होने पर भी शर्मा आदि उपाधियाँ लगा��े वाले को हम नियमानुसार प्रयोग न करने पर बाधित नहीं कर सकते अथवा छीन नहीं सकते तब तक इनका प्रयोग और अप्रयोग बराबर है। जो आर्य लोग जन्ममूलक जातियों को महत्त्व नहीं देते उन्हें भी लोक संग्रह का विचार करके सेठ, सेठी, बाजपेयी आदि उपाधियाँ त्याग देनी चाहिए; क्योंकि इन से जन्म की भावनाओं को पुष्टि मिलती है।

Kanauj, which is traditionaly said to be derived from Kanya-Kubja (the Croocked maiden) has given its name to an important division of Brahmans in northern India.
- (इन्साइक्लोपीडिया)
कान्यकुब्ज, गौड़, वाजपेयी विवेचन
वर्ण व्यवस्था के समर्थकों का एक यह भी मत है कि जितने भी जन्म जाति सूचक पुछल्ले हैं ये हमारे गोत्र हैं, इनकी रक्षा करनी ही चाहिए। जिनमें शुक्ल, मिश्र, तिवारी, चौबे, दुबे, त्यागी, सेठी, पाठक, कपूर, खन्ना, पुरी, टण्डन, शारदा, अग्रवाल आदि प्रसिद्ध हैं। इन शब्दों के प्रयोगमात्र से यह ज्ञान हो जाता है कि अमुक व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण है, क्षत्रिय है या वैश्य अथवा शूद्र है; क्योंकि गोत्रों के बहाने ये वर्ण-व्यवस्था के पक्के सन्तरी बने हुए हैं। इनमें अनेक तो विकृत हैं और अनेक शब्द शुद्ध कर लिए गये हैं। यथा-तगे से त्यागी, सारड़ा से शारदा, और मिस्र से मिश्र! बात यह है कि विवाहों के अवसर पर इनसे ख़ूब काम लिया जाता है। इनमें अनेक गोत्र नहीं हैं-यों ही गोत्रों की श्रेणी में गिने जाते हैं। फिर गोत्र का सवाल भी इतना पेचीदा है कि इसको हल करने के लिए बड़े साहस की आवश्यकता है। प्राचीन ऋषियों के आज्ञानुसार तो गोत्र वही है-जो ‘अपत्यं पौत्र प्रभृति गोत्रम’ में प्रतिपादित है। अब तो सारे वर्ण संकर हो गए है। देखिए-महाभारत में वनपर्व 180/31
‘संकरात्सर्ववर्णानांदुष्परीक्ष्येति मे मतिः’ अर्थात् वर्ण तो दुष्परीक्ष्य है। भाई! विवाह में त��� विशेष बात ध���यान देने की इतनी ही होती है कि अत्यन्त समीप के रिश्ते न हो जावें-बाकी यथायोग्य देखकर सम्बन्ध कर दिया जाता है। एक बात और-‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ को मानने वाले मुसलमानों को शुद्ध करके किस गोत्र में रक्खेंगे, ईसाइयों को किस गोत्र में डालेंगे और इसी प्रकार डच, यहूदी, पारसी किस गोत्र में गिने जायेंगे। वहाँ पुरी खन्ना तिवारी कहाँ मिलेंगे। सारे संसार में धर्मध्वजा फहराने का स्वप्न लेने वाले गोत्र की गणना में कबतक गाफ़िल रहेंगे। स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तानुसार गुण कर्म से जब वर्ण व्यवस्था होगी तो पुरी खन्ना से, तिवारी अग्रवाल से और शुक्ल कपूर से सम्बन्धित हो जाएगा-तब इन गोत्रों की कितनी कीमत रह जाएगी। तभी स्वामी दयानन्द ने संस्कार विधि में लिख दिया है कि कन्या माता की छह पीढ़ी के भीतर भी हो तथापि उसी को देना अन्य को कभी न देना। इसलिए वर्ण व्यवस्था के ठेकेदारों को यह मिथ्याप्रलाप छोड़ देना चाहिए और तुरन्त इन तमाम पुछल्लों पर पोचा फेर कर एक विशाल ‘आर्य जाति’ का निर्माण करना चाहिए। हाँ! उद्देश्य सूचक और भावोद्वोधक उपनाम रखने में कोई हानि नहीं है। जैसे अभय, त्रिशूल, हितैषी, सनेही, विद्यार्थी, मेघार्थी और सत्यार्थी आदि। इस प्रकार नाम भेद भी हो जाता है और वर्ण व्यवस्था का दिग्दर्शन भी नहीं होता। अब इसी सिलसिले में कान्यकुब्ज, गौड़ और वाजपेयी का भी हाल सुन लीजिए। ये कैसे गोत्र हैं।
(1) ब्राह्मणों में सर्व श्रेष्ठ ब्राह्मण ‘कान्यकुब्ज’ माने जाते हैं। कान्यकुब्ज में दो शब्द हैं। कान्य और कुब्ज अर्थात् सौ कुबड़ी कन्याओं से जिनकी उत्पन्न हुई वे कान्यकुब्ज कहलाए।
सुप्रसिद्ध आप्टे के विशाल कोष में भी लिखा है कि कन्नौज का नाम ‘कन्याकुब्ज’ है।
यह क���ई कपोल कल्पित किस्सा नहीं है। प्रत्युत रामाय��� के बालकाण्ड अ. 32, 33 और 34 में इस विषय का विस्तृत वर्णन मिलता है। जब राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र साथ लेकर सिद्धाश्रम से लौटे हैं तब कुश राजा के राज्य में पहुँचकर राम ने विश्वामित्र से पूछा है कि-
‘भगवन्! कोन्वयं देशः अर्थात् इस देश का क्या नाम है तब विश्वामित्र ने बताया है कि मेरा जन्म देश यही है और यह देश ब्राह्मणों की उत्पत्ति का केन्द्र है। ये सारे ब्राह्मण क्षत्रियों की सन्तान हैं। इस प्रकार ‘वर्णसंकर’ का दोषारोपण भी कर दिया। प्रमाण इस प्रकार है-
ब्रह्मयोनिर्महा नासीत् कुशोनाम महातपः।
अल्किष्टव्रतधर्मज्ञः सज्जन प्रतिपूजकः॥
अर्थात् कुश नाम का महातपस्वी राजा ‘ब्रह्मयोनि’ था। उसके वैदर्भी नाम की स्त्री से कुशाम्ब, कुशनाभ आदि चार पुत्र पैदा हुए। कुशाम्ब ने कौशाम्बी बसाया जिसको आजकल ‘कोसम’ कहते हैं-और कुशनाम क्षत्रिय राजा ने घृताची नाम की स्त्री में सौ सुन्दर कन्याएँ पैदा कीं। श्लोक इस प्रकार है-
कुशनाभस्तु राजार्षिः कन्याशत मनुत्तमम्।
जनयामास धर्मात्मा घृताच्यां रघुनन्दन॥
ये कन्याएँ वायु दोष से कुबड़ी हो गयीं। इन कुबड़ी सौ कन्याओं का विवाह चूली के पुत्र ब्रह्मदत्त से हुआ। ब्रह्मदत्त ब्राह्मण था। उसके स्पर्श मात्र से सभी कन्याओं का कुबड़ापन दूर हो गया।
स्पृष्ट मात्रे तदा पाणौ विकुब्जाः विगत ज्वराः।
युक्तं परमया लक्ष्म्या बभौ कन्याशतं तदा॥
अब स्वयं सोच लीजिए कि इन सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मणों की उत्पत्ति कहाँ से हुई। हम तो इन बातों को बिलकुल नहीं मानते परन्तु हमारे कान्यकुब्ज भाई जब-जब अपना ‘कान्यकुब्ज’ गोत्र बतायेंगे, तब-तब हम भी वाल्मीकीय रामायण का हिस्सा सामने रख देंगे। शांतं पापम्।
कान्यकुब्ज लोग अपने को सर्व श्रेष्ठ ब्राह्मण मानते ��ैं। प्रम���ण रूप से प्रस्तुत करते हैं कि ‘‘कान्यकुब्जः द्विजाः श्रेयाः’’। न जाने कहाँ का यह प्रमाण है। यह संस्कृत में है इस लिए लोग इसे मान अवश्य लेते हैं। परन्तु वास्तव में कान्यकुब्ज लोगों में मांस भक्षण का विशेष प्रचार है। शुद्ध इतने बनते हैं कि ‘नौ कनौजिया दस चूल्हे’। इनमें ऐसे लोग भी हैं जो अपनी स्त्री के हाथ से भी भोजन बनवा कर नहीं खाते। ये लोग हस्तपाकी कहलाते हैं। परम पवित्र होते हैं। आर्य समाज में भी इस टाइप के उपदेशक होते हैं। भला हो इनका? जब मांसभक्षण में कनौजिए निपुण हैं तब शराब को क्यों छोड़ते होंगे। कहावत है-
‘‘बाला पियें पियाला, फिर बाला के बाला’’
बाला के शुक्ल मशहूर हैं। फिर वर्ण व्यवस्था के पक्के ठेकेदार हैं। आधा अछूतपन इन्हीं के कारण देश में है। इन्हीं में शुक्ल, तिवारी, मिश्र, पांडे सब शामिल हैं। अछूतोद्धार के मार्ग में इनके ये पुछल्ले बड़े बाधक हैं।
(2) अब ‘गौड़’ की कथा सुनिए। वेद में ‘गौर’ आया है उस का विवेचन तो फिर होगा। अभी तो देखिए-बंगाल देश का नाम गौड़ है। बंगाल में खजूर का गुड़ बहुतायत से होता है। खजूर की शराब भी वहाँ खूब बनती है-जिसका पान प्रायः सौ में नब्बे बंगाली करते हैं। इनमें चटर्जी, मुकर्जी, और बनर्जी सभी हैं। ये लोग उच्च कोटि के ब्राह्मण माने जाते हैं। मछली को तो ये लोग जल तोरी मानते हैं-और अण्डे को रसगुल्ला समझ कर खाते हैं।
ऐसे ब्राह्मणों को राक्षस कहा जाए या पिशाच परन्तु ‘गौड़’ ब्राह्मणों की उत्पत्ति का श्रेय इनको अवश्य है। इसीलिए ‘सुश्रत’ जैसे सुप्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ में लिखा है कि ‘गोडः पाचन दीपनः’ अर्थात् गुड़ की शराब हाजमा बढ़ाती है। बात यह है कि गुड़ क�� हाजिम शराब को पीने वाले गौड़ लोग कहलाये। जिसके लिए मनु���्मृति जैसी पुस्तक ने भी मुक्तकंठ से निंदा की। मनुस्मृति में लिखा है-
गौडी पैष्टी च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा।
यथैवैका तथैवान्या न पातव्या द्विजोत्तमैः॥
अर्थात् गुड़ की बनी शराब, पिट्ठी की बनी शराब और महुवे की शराब तीनों ख़राब हैं। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य शराब न पीवें। सो उसी गुड़ की निषिद्ध शराब को पीने वाले गोत्र के गौड़ बड़े शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वभाव बने हुए हैं। एक बात मनुस्मृति के श्लोक में पाई जानी स्वाभाविक है-क्योंकि शूद्रों के लिए तो मनुस्मृति का बनाने वाला ख़ार खाए बैठा था। मनुस्मृति है ही क्या शूद्रों के विरुद्ध द्विजों का एक षड्यन्त्र? और पुरोहित शाही का पोषक एक प्रपञ्च!!! उक्त श्लोक में लिखा है कि द्विज शराब न पीवे। बेचारा शूद क्यों पीवे? क्या धर्मशास्त्र इसीलिए है कि शूद्रों को शराब पीने की आज्ञा देवे। अब समझ में आया कि शूद्र लोग मनुस्मृति को जलाने के लिए मशाल लिए क्यों अड़े हैं। हम तो मनुस्मृति को जला देने के लिए तय्यार हैं; चाहे आर्य्यसमाजी बिगड़ें या धर्म समाजी क्योंकि हम तो वेद को ही अपना धर्मशास्त्र समझते हैं।
इसी प्रकार एक दूसरा श्लोक भी शूद्रों को शराब पीने के लिए उत्तेजित करता है।
सुरा वै मल मन्नानां पाप्मा च मल मुच्यते।
तस्माद् ब्राह्मणराजन्यौ बैश्यश्च न सुरां पिबेत्॥
अर्थात् शराब अन्नों का मैल है इसलिए द्विज लोग शराब न पीवें। क्यों भाई! शूद्र तो पीवे। फिर मजा यह है कि ब्राह्मण लोगों ने खुद क़ानून बनाया और आज शूद्रों को भी विस्की पीने में मात कर गए। परन्तु हैं अभी शर्मा जी। इस शर्मा की छाप ने शराब को शरबत बना दिया और मांस को सेव का गूदा। कुछ न पूछिए। द्विजों के इस पाखण्ड ने वर्ण व्यवस्था को खूब मांजा है।
(3) अब तीसरे श्रेष्ठशिरोमणि ब्राह्मण देवता का हाल सुनिए। आप ब��जपेयी ���ने हैं। मध��यकाल ���ें जब ब्राह्मण लोग मांस शराब के खूब अभ्यासी हो गए तो यज्ञ करके सब उसी के नाम समेटने लगे। बकरा काटा यज्ञ के नाम पर और कर दिया पेट के हवाले। शराब का छींटा दिया यज्ञाग्नि में और उड़ेल गए गले की गटर में। पाप तो हुआ ही नहीं; क्योंकि ‘वैदिकी हिंसा-हिंसा न भवति।’ यह भी इनका बनाया कानून है। उसी सिलसिले में ‘वाजपायी’ प्रसिद्ध हो गए। ‘वाज’ नाम अन्न का भी है। यज्ञों में अन्न की बनी हुई शराब को पीने वाले ‘वाजपायी’ कहलाते थे। वाल्मीकीय रामायण में साफ़ है-‘‘वाजयेयान् दशगुणान् तथा बहु सुवर्णकान्’’ (उत्तर काण्ड) सो बिगड़ते-बिगड़ते अब ‘बाजपेई’ बन गए। हैं ये बड़े कटु किस्से। परन्तु हमने तो सत्य लिखने की शपथ खा ली है-इसीलिए लिखेंगे जरूर, चाहे फिर कुछ भी हो। यह है इन लोगों के गोत्रों की संक्षिप्त कथा। भाइयो!
कहानी से भण्डार पूरा भरा है।