गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013


हिन्दुत्व का कलंक मनुस्मृति- जातिमुक्त भारत हेतु- 1



मेरा उद्देश्य 

1- हर हिन्दू अपने नाम के आगे से जातिसूचक शव्द हटाकर गुण बाचक शब्द लगाये !
2-कोई किसी की जात ना पूछे ना बताये !
3-जातीबाद को खतम करवाने हेतु सरकार पर कानून बदलकर जातीबाद पर पूर्ण बैन लगाने हेतु दवाव बनाने हेतु हिन्दू एकता के लिए समाज को जागरूक करना 
4-जातीबाद-गॉत्रबाद महा पाखंड और अंधविस्वास इनपर तुरंत रोक हेतु सरकार पर दबाब बने 
5-जो संगठन जातीबाद और गोत्र जैसे पाखंड के नाम पर बच्चो का कतल करबाते हैं उनेह तुरंत आतंकी संघटन घोषित करके उसमे काम करने बालों को को जेल मे डाला जाये ताकि एह अमानवीय आतंक समाप्त हो सके.
6-आज तक सिर्फ प्रेमी ही इसका विरोध करते रहे हैं पर अब समय आ गया है जब पूरा समाज मिलकर इस कलंक के खिलाफ खड़ा हो .
7-आर्य समाज,संघ,अन्य ध्रमिक संघटन और अग्नि वीर जैसी साइटें भी इस गोत्र और जातीबाद का घोर विरोध करें और समाज को जागरूक करें ना की वर्ण वियावस्था का समर्थन .
8-में किसी जाती या वर्ग का विरोध नही कर रहा हूँ में पूरे सिस्टम का विरोध कर रहा हूँ 
9-हिन्दू,हिन्दुस्तान की एकता और अखंडता के लिए परम अबस्यक है 
10-नारी जाती को पूर्ण स्व्न्त्र्ता हो कुछ भी करने को,अपने फैसले लेने के लिए .

नोट:- कोई कितना भी प्रताडित करे पर में ना तो हिन्दू ध्रम का त्याग करूंगा ना ही लिखना छोडूंगा ,आप  मुझे फेसबूक और ट्विटर पर भी फॉलो कर सकेंगे ,इसी नाम से .
जो लोग मनुबाद का समर्थन करते है वो ज़रूर पड़ें फिर बतायें की किस आधार पर एह ठीक है.
    अश्रेयान् श्रेयसीं जातिं गच्छत्यासप्तमात् युगात्॥10/64॥
    अनार्यायां समुत्पन्नो ब्राह्मणात्तु यदृच्छया।
    ब्राह्मण्यां अप्यार्यात्तु श्रेयस्त्वं केतिचेत् भवेत्॥10/66॥
    जातो नार्यां अनार्यायां आर्यात् आयों भवेत् गुणेः।
    जातो ऽप्यनांर्यात् आर्यायां अनार्य इति निश्चयः॥10/6॥
    यदतोऽन्यत् हि कुरुते तद् भवत्यस्य निष्फलम्॥10/123॥
    जात ब्राह्मण शब्दस्य सा ह्यहस्य कृतकृत्यता॥10/122॥
    पुलाकाश्चैव धान्यानां जीर्णाश्चैव परिच्छदाः॥10/125॥
    नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति-न धर्मात् प्रतिषेधनम्॥10/126॥
    जिह्वाया प्राप्नुयात् छेदं जघन्य प्रभवोहिसः॥8/270॥
    निक्षेप्यो ऽयोमयः शंकुः ज्वलन्नास्ये दशांगुलः॥8/271॥
    तप्त मासेचयेत् तैलं वक्त्रे श्रोत्रेच पार्थिवः॥8/272॥
    वितथेन ब्रुबन् दर्पात् दाप्यः स्यात् द्विशतं दमम्॥8/273॥
    छेत्तव्यं तत्तदेवास्य तन्मनो रनुशासनम्॥8/279॥
    कट्या कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वास्यावकर्त्तयेत्॥8/281॥
    चतुर्णामपि वर्णानां दारा रचयतमा सदा॥8/359॥
    तस्मात् मेध्यतम् त्वस्य मुखमुत्ता स्वयम्भुवा॥1/92॥
    सर्वस्यैवास्य सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः॥1/93॥
    कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं ततः॥1/95॥
    श्रेष्ठयेनाभिजने नेदं सर्वं वै ब्राह्मणोर्हति॥1/100॥
    आनृशंस्यात् ब्राह्मणस्य भुंजते हीतरे जनाः॥1/101॥
    शिष्येभ्यश्च प्रवक्तव्यं सम्यङ् नान्येन केनचित्॥1/103॥
    प्रब्रू यादू ब्राह्मणात्वेषां नेतराविति निश्चयः॥10/1॥
    शूद्रस्तु यस्मिन् फस्मिन् वा निवसेत् वृत्तिकर्शितः॥2/24॥
    पैप्पलो दुम्बरौ वैश्यो ��������ान् अर्हन्ति धर्मतः॥2/45॥
    नाब्राह्मणो गुरौ शिष्यो वासमात्यन्तिकं वसेत्॥2/242॥
    करवट नहीं बदलते हैं इस इजतराब में।

एक बड़े मार्के की बात मनुस्मृति में दर्ज है। ब्राह्मण यदि शूद्र की भी कन्या से विवाह कर ले तो हर्ज नहीं, लेकिन यदि क्षत्रिय ब्राह्मण की कन्या से विवाह कर ले तो ‘वर्णसंकर’ हो जाएगा! इसी प्रणाली से हजारों ही उप-जातियाँ हो गईं। कोई तो पेशे के कारण नीच समझी जाने लगी और कोई वर्ण संकरता से बचने के लिए पृथक् नाम से पुकारी जाने लगी। जैसे कायस्थ, खत्री, अरोड़े इत्यादि। मनुस्मृति का अनुलोम और प्रतिलोम विवाह भी तो ‘द्विजों का षड्यन्त्र’ है। शूद्रों के कुचलने के लिए ब्राह्मणों ने क्षत्रिय और वैश्यों को साथ लेकर मनुस्मृति में मनमाने कानून बना डाले। अस्तु-अब हम नमूने के लिए मनुस्मृति के कुछ श्लोक लिख कर उन का भावार्थ किए देते हैं।
शूद्रायां ब्राह्मणात् जातः श्रेयसा चेत् प्रजायते।
यदि शूद्रा में ब्राह्मण से सन्तान हो तो वह उच्च जाति की बन जाती है।
यदि ब्राह्मण का मन शूद्रा पर चल जाए तो भी सन्तान उच्च होगी।
शूद्र स्त्री में द्विजों से सन्तान हो तो वे आर्य हैं। परन्तु शूद्र यदि द्विज स्त्री से सन्तान पैदा करे तो वह अनार्य ही रहेगी।
देखिए शूद्रों को आर्यों की पंक्ति से कैसे बाहर कर दिया है। तब न जाने शूद्र लोग ‘आर्यसमाज’ में क्यों घुसते हैं और फिर आर्यसमाज में जब चारों
वर्ण ही नहीं रहे तो वर्ण व्यवस्था की दुर्गति होनी तो स्वाभाविक ही थी।
विप्रसेवैव शूद्रस्य विशिष्टं कर्म कीर्त्यते।
यदि कुछ वेतन लेने की इच्छा हो तो क्षत्रिय या वैश्य की सेवा करके जीवन बिताले।
स्वगार्थं उभयार्थं वा विप्रान् आराधयेत्तु सः। 
यदि स्वर्ग जाने की इच्छा हो तब तो बिना कुछ लिए ही ब्राह्मण की सेवा करे। यदि ‘ब्राह्मण के बन गए’ तो सारा जीवन ही सफल समझो।
उच्छिष्ट मन्नं दातव्यं जीर्णानि वसनानि च।
शूद्र को झूठा अन्न, फटे कपड़े और बिछौने देना चाहिए; क्योंकि शूद्र को कोई पाप नहीं होता है। देखिए-अगला श्लोक तय्यार है।
न शूद्रे पातकं किंचित् न सः संस्कारमर्हति।
शूद्र के लिए कोई संस्कार नहीं है और उनको धर्म में कोई अधिकार नहीं है। हाँ! स्वधर्म अर्थात् सेवा करने का सर्वाधिकार प्राप्त है। क्या खूब!!!
एक जातिः द्विजातींस्तु वाचा दारुणयाक्षिपन्।
यदि शूद्र द्विजों को गाली देवे तो उसकी जीभ काट ली जाए, क्योंकि वह पैदायशी नीच है।
नामजातिग्रहं त्वेषां अभिद्रोहेण कुर्वतः।
यदि द्विजों का नाम लेकर शूद्र यह कह बैठे कि ‘ब्राह्मण’ बना है �����ो उसके मुख में दस अंगुल की लोहे की शलाका जलती-जलती घुसेड़ देवे।
धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणा मस्य कुर्वतः।
यदि शूद्र ब्राह्मण को कोई धर्म की बात कह दे तो उसके मुख और कान में राजा खौलता हुवा गरम तेल डलवा दे। परमात्मा बचावे! हिन्दुओं के रामराज्य और स्वराज्य से। नहीं तो ये लोग अपनी मनुस्मृति के आधार पर सब कुछ करेंगे। इन्होंने क्या नहीं किया। सबसे बढ़िया कहे जाने वाले रामराज्य में शम्बूक नामक शूद्र का सिर सिर्फ़ इसलिए स्वयं आदर्श राजा राम ने काट दिया कि वह तप करता था, मुनि बनता था, देखिए-तब भी वे लोग वेद नहीं मानते थे। मनुस्मृति मानते थे। वेद में तो शूद्र के लिए लिखा है-तप से शूद्रम्, अर्थात् शूद्र की तपस्या करने का पूर्ण अधिकार है। यह है मनुस्मृति का अन्याय!!
श्रुतं देशं च जातिं च कर्म शरीर मेव च।
यदि कोई अपनी जात छिपावे (जैसा कि आजकल छोटी जाति वालों को मजबूरी करना पड़ता है) तो उससे दो सौ पण जुर्माना लिया जावे।
येन केन चित् अंगेन हिंस्यात् श्रेष्ठमन्त्यजः।
अन्त्यज (शूद्र और अछूत) जिस किसी अंग से द्विजों को मारे उसका वहीं अंग काट लिया जावे।
सहासनममि प्रेप्सुः उत्कृष्टस्यावकृष्टजः।
यदि अछूत द्विज के बराबर दूरी आदि पर बैठ जावे तो उसके चूतड़ पर गरम लोहे से दाग दे अथवा थोड़े चूतड़ ही कटवा दे।
अब्राह्मणः संग्रहणे प्राणान्तं दंडमर्हति।
यदि शूद्र किसी की स्त्री को भगा ले तो उसको फाँसी का दंड दिया जावे; क्योंकि चारों वर्णों की स्त्रियों की रक्षा कोशिश के साथ करनी चाहिए परन्तु ब्राह्मण यदि किसी की स्त्री को भगाले तो जुर्माना तक न करे। देखिए एक श्लोक में लिखा है-‘कन्यां भजन्तीं उत्कृष्टां न किंचिदपि दापयेत्’॥8/365॥
ऊर्ध्वं नाभे र्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः।
नाभि से ऊपर शरीर पवित्र है, उसमें भी मुख अत्यन्त पवित्र है। इसलिए पाँव (शूद्र) तो अपवित्र ही रहेंगे।
उत्तमांगोद्भवात् ज्यैष्ठयात् ब्रह्मणश्चैव धारणात्।
मुख से पैदा होने के कारण ब्राह्मण सबसे बड़े हैं और सृष्टि के मालिक हैं।
यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः।
देवता लोग ब्राह्मणों के मुख द्वारा ही भोजन करते हैं इस लिए संसार में ब्राह्मण से बढ़कर कोई प्राणी नहीं है।
सर्वस्वं ब्राह्मणस्येदं यत् किंचित् जगती गतम्।
संसार में जो कुछ है सब ब्राह्मण का है, क्योंकि जन्म से ही वह सबसे श्रेष्ठ है।
स्वमेव ब्राह्मणो भुंक्तो स्वं वस्ते स्वं ददाति च।
ब्राह्मण जो कुछ भी खाता है, पहिनता और देता है सब अपना ही है। संसार के सब लोग ब्राह्मण की कृपा से ही खाते-पीते और लेते देते हैं।
बिदुषा ब्राह्मणोनेदं अध्येतव्यं प्रयत्नतः।
विद्वान् ब्राह्मण को चाहिए कि इस मनुस्मृति शास्त्र को खूब प्रयत्न से पढ़े और ब्राह्मण को ही पढ़ावे। दूसरे कदापि न पढ़ने पावें; क्योंकि श्रद्धेय स्वामी श्रद्धानन्द की कृपा से जैसे हम अब पढ़ गये हैं सो सब पोल खोलकर धरे देते हैं।
अधीयीरन् त्रयो वर्णाः स्वकर्मस्था द्विजातयः।
द्विजाति लोग विद्या पढ़ें। परन्तु पढ़ाने का काम ब्राह्मण ही करें। शूद्र पढ़ने न पावें। कैसा षड्यन्त्र है-
एतान् द्विजातयो देशान् संश्रयेरन् प्रयत्नतः।
इन ब्रह्मर्षि, आर्यावर्त्त आदि देशों पर द्विजाति लोग कोशिश करके अपना कब्जा करलें और शूद्र तो मुसीबत का मारा किसी कोने में पड़ा रहे। यह श्लोक गुरुकल-काँगड़ी से प्रकाशित और स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा संशोधित मनुस्मृति में भी पाया जाता है। कोई करे भी क्या, दो एक श्लोक हों तो निकाल दे। यहाँ तो सारी मनुस्मृति में ही जन्म का जादू जोर मार रहा है। इसलिए मनुस्मृति को तो जल मग्न ही कर देना पड़ेगा।
ब्राह्मणो बैल्व पालशौ क्षत्रियो बाट खादिरौ।
द्विजाति लोग दण्ड धारण करें। शूद्र के लिए कोई आज्ञा नहीं। यह संस्कार विधि में भी है।
अब्रोह्मणादध्ययनं आपत्काले विधीयते।
क्षत्रिय आदि पढ़ाने की योग्यता भी रखते हों तो भी इनको पढ़ाने का काम न दे। इसके अनुसार आजकल स्कूलों में जितने गुप्ता मास्टर या हेडमास्टर हैं, सब के सब बायकाट के योग्य हैं।
यह है संक्षेप से द्विजों का षड्यन्त्र। वास्तव में वाममार्गियों ने मनुस्मृति में प्रक्षेप अवश्य किया है-सो मांसादि का विषय है। इस वर्ण व्यवस्था के मामले में तो मनुस्मृति का स्वमत यही है। यह प्रक्षेप में नहीं है। अब हम यहाँ यह भी बता देना चाहते हैं। यदि आप मनुस्मृति के सुन्दर श्लोकों का संग्रह पढ़ना चाहते हैं तो 1) में पं. चन्द्रमणि विद्यालंकार कृत ‘आर्ष-मनुस्मृति’, भास्कर प्रेस, देहरादून से मँगा लीजिए। सुयोग्य पण्डित जी ने पाखण्ड से परिपूर्ण 9वाँ तथा 11वाँ अध्याय बिलकुल उड़ा दिया है। यह अति उत्तम किया है, और अपने बच्चों के हाथ में हमारी बनाई ‘आर्यकुमार-स्मृति’ अवश्य दीजिए जिसमें अर्थ सहित मनुस्मृति के जीवनोपयोगी 100 श्लोक संगृहीत हैं। मूल्य भी सिर्फ़ चार आना है। अधिक क्या लिखें। आर्य समाजी लोग यदि मनुस्मृति का मोह छोड़ कर वेदों पर ही अपने धर्म को स्थिर करलें-तभी आर्यसमाज सौर्वभौम-धर्म का प्रचारक बन सकेगा। क्या वेदों में कुछ कमी है जो मनुस्मृति के पीछे पड़े हैं। देखिए-आर्यसमाज यदि वर्ण व्यवस्था का ढोंग न छोड़ेगा तो मर जाएगा और अकाल में मर जाएगा। ये लोग तो-
सोए हैं शर्त बाँध के मुर्दों से ख़्वाब में।

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